प्रथम दृश्य - ( देवेन्द्र का दरबार )
द्वारपाल: राजाधिराज! देवर्षि नारद प्रवेश कर रहे हैं।
इन्द्र: सादर लाओ, मैं ऋषिवर का दर्शन कर लोचन कृतार्थ करूँ।
द्वारपाल: यथाज्ञापयतु !
( दिव्य शरीर नारद का प्रवेश। करतल वीणा पर नारायण-नारायण का मधुर स्वर झंकृत है। )
इन्द्र: ( हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए सिंहासन से उठ खड़े होते हैं ) आइये देवर्षि! मेरा परम सौभाग्य है कि आपके पद-पद्म अमरावती में पधारे। आसन ग्रहण करें देवर्षि!
नारद: देवाधिपति! परिभ्रमण तो अपना स्वभाव ही है, परिक्रमा अपनी दिनचर्या है, चरैवेति-चरैवेति जीवन-मंत्र है। स्थिरता तो मरण में है, जीवन में कहाँ! चलना ही केवल चलना है, जीवन चलता ही रहता है।
इन्द्र: आप कृपालु हैं। मैं कृतकृत्य हुआ। कहाँ से आना हो रहा है? उत्सुक हूँ कि श्रीमुख से कुछ सुनूँ।
नारद: अभी तो धराधाम से चला हूँ। ब्रह्मलोक जाने का मन था, सुरपुर की संगीतमय लहरी सुन ठिठक गया। ऐसा ही रुचिर ऋतुराज लेकर काम हिमगिरि पर मुझे स्खलित करने गया था। हरि इच्छा। वही स्मृति हुई। आपसे मिलने आ गया। हूँ तो मैं स्वर्ग लोक में पर मन बँधा है मृतलोक में ही। इन्द्र! मानव भी कितना गरिमामय है।
इन्द्र: हे मनोजमदमर्दन ऋषि! मृत्युलोक के किस महामानव ने आपको अभिभूत किया है?
नारद: अयोध्या नरेश हरिश्चन्द्र। त्रिशंकु सुत हरिश्चन्द्र की यशोगाथा दशोदिगंत में गूँज रही है। सत्य की तो वह प्रतिमूर्ति ही है। पवन का प्रत्येक झोंका जैसे यही प्रतिध्वनित कर रहा था-
"चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार । पै दृढ़वत हरिश्चन्द्र को टरै न सत्य विचार॥"
ऐसा महापुरुष ही दैदीप्यमान भारत की अनुपम तेजस्विता है। सत्य तो उस राजा के लिए प्रभु का चरणामृत है। झोपड़ी से लेकर राजप्रासाद तक वह मुक्तहस्त वितरित हो रहा है। धन्य है ऐसा भूपाल।
इन्द्र: (हृदय ईर्ष्या से उद्वेलित हो रहा है) (स्वगत) हृदय भी ईश्वर ने क्या वस्तु बनाई है। जो जितना ही बड़ा, उसकी ईर्ष्या उतनी ही बड़ी। (प्रकट) ऋषिवर! जिसकी प्रशंसा आप जैसा निस्पृह व्यक्ति करे, वह बड़ा तो होगा ही। चरित्र उद्घाटित करें ऋषिवर!
नारद: कहीं खो गए हैं आप! हरिश्चन्द्र तो सत्यवादिता का सामगान है। उसका मन,वचन, कर्म एक है। जो कहता है वही करता है । सर्वोत्तम उपलब्धि तो यह है देवराज कि पृथ्वी हरिश्चन्द्र के राज्य में कामदुग्धा हो गयी है। प्रजा का सुख ही राजा का सुख है। सर्वत्र सुख है, शांति है, सौहार्द्र है, मोद है, मंगल है। सत्यवादी हरिश्चन्द्र का होना मानवता की महत्तम शोभा है।
इन्द्र: (स्वगत) अब तो पाषाण हृदय पर रखकर बड़ाई सुन रहा हूँ। राजा को इन्द्र पद का लोभ उठना स्वाभाविक है, मैं इसे कैसे सहन कर सकूँगा। (प्रकट) ऐसा व्यक्ति तो सहज ही स्वर्गारोहण कर जाता है न ऋषिवर!
नारद: जो सत्य की सम्पदा को अपने हृदय का हार बनाये हो उसके लिए तुच्छ स्वर्ग की क्या कीमत? पद प्रतिष्ठा तो सत्य निष्ठा के चरण तले स्वयमेव लोटती रहती है। चरित्र ही महापुरुषों का स्वर्ग है।
इन्द्र: हरिश्चन्द्र का कुटुम्ब भी हरिश्चन्द्र ही है क्या देवर्षि?
नारद: सुरवर! रानी शव्या और सुकुमार रोहिताश्व की बात निराली ही है। जगत विकारों की अन्धतिमिर गली में वे सद्गु्णों की निष्कंप दीपशिखा हैं। उन्हें ही नहीं, अयोध्या की सारी प्रजा को हमने श्रुति नीति में पारंगत देखा। न कहीं द्वेष, न क्षोभ, न ईर्ष्या, न उन्माद। सम्पूर्ण प्रजा ही हरिश्चन्द्र का कुटुम्ब है। सभी सत्य, धर्म, शील के आगार। दातावृत्ति तो उनके रुधिर में है।
इन्द्र: ऋषिवर! क्या दान देते-देते लक्ष्मी क्षीण नहीं हो जायेंगी?
नारद: दाता मन हो तो भर्ता विश्वंभर है। शतगुणा लेकर सहस्रगुणा नीरदाता मेघ क्या फिर-फिर भर-भर नहीं जाते हैं। सागर की वाष्पीभूत जलराशि धारासार वृष्टि से धरित्री की छाती शीतल कर देती है न! क्या चन्द्र बिम्ब के चुम्बन की कसक समेटे सागर कभी रीता हुआ है? धर्मशील के पास सुख-संपत्ति बुलाये बिना ही चली जाती है।
इन्द्र: (स्वगत) मेरा तो कलेजा ही बैठा जा रहा है। चाहे जैसे भी हो हरिश्चन्द्र का पतन करना ही होगा। (प्रकट) हे मुनिश्रेष्ठ! मानव इतना गुणवान होगा, हमको तो इसका पता न था। आप प्रशंसा कर रहे हैं तो सत्य ही.......
नारद: सदय हृदय, परोपकारी मन, धर्मव्रती किससे वंदनीय नहीं होते? उस राजा के धर्मविभव के आगे तुम्हारा नंदनवन, वनितादिक भोग, अक्षय क्रीड़ा-कल्लोल सब तुच्छ है, तृणवत है।
इन्द्र: (मन ही मन) भले ही राजा की स्वर्ग लेने की इच्छा न हो, किन्तु एक बार तो उसके सत्य की परीक्षा अवश्य लेंगे। नारद ने तो बड़ी बेचैनी पैदा कर दी। (प्रकट) क्या मुनिवर, हरिश्चन्द्र जो कह देते हैं, वह किसी को अवश्य दे देते हैं?
नारद: निःसन्देह। सत्य ही उसका गुरु है, प्राण प्रधान शिष्य। परोपकार ही संकल्प है। अस्मिता ही हवन है, आतिथ्य ही नित्य विष्णुयज्ञ है। सेवा परायणता ही दक्षिणा है। धर्म ही ध्वजारोहण है। सत्य रूपी सद्गुरु की चरणपादुका का जल ही उसका चरणामृत है। वह स्वयं अपने आप में तीर्थ है, तीर्थराज प्रयाग है। धर्मात्मा की जीवन शैली ही ऐसी होती है कि वह जीवन को आनंद और माधुर्य के साथ जी सके। देखो इन्द्र! आकाश में उड़ने के लिए केवल पंख ही आतुर नहीं हैं, आकाश स्वयं निमंत्रण देता है, पंछी आये और उन्मुक्त गगन में छलाँग लगाए। केवल प्यासा ही पानी पीने को तृष्णातुर नहीं है बल्कि नीर भी उतना ही आतुर है। प्यास दोनों में समान है। विराट पुरुष की ममतामयी बाहें सत्यनिष्ठ को बड़े ही मोद से झूला झुलाती हैं। इसलिए धन ही को सर्वस्व मत मान लेना। उससे भी सर्वोपरि बहुत कुछ है।
इन्द्र: मुझे विश्वास है आपकी बातों पर। राजा हरिश्चन्द्र का जीवन सत्य,दान और सद्भाव का कोष है। दूसरों के लिए उदाहरण बनने योग्य।
नारद: सुनो, "मनस्येकं वचस्येकं कर्ममेकं महात्मनाम्" ! सत्य से बढ़कर शरण कौन! हरिश्चन्द्र की प्रत्येक रुधिर की धड़कन में आप सुनेंगे -"सत्यं शरणं गच्छामि"। विष्णु उस संसार में अवतार लें या न लें लेकिन दुनिया में फिर-फिर हरिश्चन्द्र पैदा होना चाहिए। अब हमारा समय हुआ। चलते हैं। सुरपति! ईर्ष्यालु मत हो जाना। (प्रस्थान।)
(दरवाजे पर आहट, द्वारपाल का प्रवेश)
द्वारपाल: महाराज, गाधितनय विश्वामित्र जी पधारे हैं।
इन्द्र: (स्वगत) भले गए नारद। अब द्वितीय दृश्य को चरितार्थ करना है। (द्वारपाल से) ससम्मान ले आओ ब्रह्मर्षि को। हमें उनकी नितान्त आवश्यकता है।
(द्वारपाल जाता है। ऋषि विश्वामित्र प्रवेश करते हैं।)
इन्द्र: (शिष्टाचारोपरान्त) आइये प्रभु, आपका स्वागत है। हमारी उद्विग्नता का सम्यक निदान आप से ही सम्भव है। अन्यथा न लें। सेवक हूँ। धृष्टता क्षमा करने की कृपा करेंगे।
विश्वामित्र: देवपति! ऐसा न सोचें। आपने कुछ अन्यथा या अनाचरणीय नहीं किया है। देवर्षि की वीणा सुनायी पड़ी है। स्वभाववश उन्होंने ही तो उद्विग्न नहीं कर दिया है आपको?
इन्द्र: (विनत सिर) हाँ प्रभु! नारद आये थे। हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता और दानशीलता का इतना बखान किया उन्होंने कि उच्चपदस्थ मैं आहत हो उठा। उन्होंने उनके सत्याचरण को आपकी तपस्या से गुरुतर बताया। कहा कि अखिल भुवन में हरिश्चन्द्र सा दानी न था न होगा। सभी विभवशाली जनों की सम्पदा, सभी तपोपूत ऋषियों की साधना, सभी कर्मयोगियों का कर्म हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा की तुलना नहीं कर सकते। मुझे अनर्गल प्रलाप लगा। सब सुनता तो रहा पर अंतर्द्वन्द्व से ग्रसित था कि क्या ऐसा संभव है! आप जैसा ऋषि जो दूसरी सृष्टि रच सकता है, जो ब्रह्मर्षि की गरिमा से संपन्न हो, वदंनीय वह है न कि वह नरपति जिसके यश का वर्णन करते नारद की वाणी नहीं थकती थी। आपके आने का आभास न मिल गया होता तो वे अभी न जाने कितना आकाश-पाताल एक करते। सहन नहीं हो रहा था ब्रह्मर्षि!
विश्वामित्र: (भृकुटी तन जाती है) हरिश्चन्द्र में कौन ऐसे गुण हैं जिनको नारद ने आपके आगे सराहा है? अयोध्या की राजकुल की वंशावली का हमें घट-घट पता है। सत्यान्वेषण, सत्य संपोषण हँसी ठट्ठा है क्या?
इन्द्र: ऋषिवर! सत्य की हरिश्चन्द्र सी मिसाल उनकी दृष्टि में धरा-धाम में कहीं है ही नहीं। वैसा सर्वगुणसम्पन्न राजा नारद की दृष्टि में किसी भी माता की कोख ने अभी तक नहीं जना है। कहाँ वह गृहासक्त वह राजा, कहाँ विरागी आप जैसे महात्मा! धर्म व्रत का, तप तितीक्षा का आपका गुण नारद के लिए अदृश्य था। भला राज्य निर्वहन करते और गृहकार्य में उलझे किसी मनुष्य के द्वारा धर्म का हथ निभ सकता है? कोई परीक्षा लेता तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाता!
विश्वामित्र: मैं अभी देखता हूँ देवराज! हरिश्चन्द्र की मिट्टी पलीद नहीं कर दी तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं। भूल गया वह कि उसी के तात त्रिशंकु को इस विश्वामित्र के तपोबल ने ही सदेह आकाश भेज दिया। मेरे सम्मुख तो आपने एक चुनौती रख दी। भला विश्वामित्र के सामने वह क्या सत्यवादी बनेगा! उसकी दानशीलता दुर्गति की किस सीमा तक पहुँचेगी, देखते रहना। यद्यपि हरिश्चन्द्र का मुझसे कोई व्यक्तिगत वैर नहीं है, किन्तु चाटुकारी की हद कर दी है नारद ने। परीक्षा करके ही मानूँगा।
(क्रोध पूर्वक उठकर चल देते हैं। पर्दा गिरता है।)
द्वितीय दृश्य - ( राजमहल का अंतःप्रकोष्ठ। )
राजा: ( शून्य में ऊपर निहारते हुए ) पुकार रहा हूँ। कब से, कब से पुकार रहा हूँ। कल भी पुकारूँगा। जब तक प्राण हैं, तब तक पुकारूँगा विप्रवर! तुम सुन रहे हो, तुम सुनोगे और मुझे कृतार्थ करोगे! मंगलमय, तुम्हारा विधान मंगलमय है। विस्मृत मत कर देना जीवनधन। हम पर कृपा करो, हमारी प्रार्थना सुन लो।
रानी: ( उठकर पास जाती है ) क्या है प्राणनाथ! कहाँ खोये हैं, किसे पुकार रहे हैं?
राजा: प्रिये क्या बताऊँ! स्वप्न में कहूँ या जागरण में ही। इसी कक्ष से किसी ने मुझे वातायन से बाहर खींच लिया। देखा, रक्तवर्ण की टेड़ी टूटी हुई उल्काएँ आकाश से पतित हो रही हैं। सूर्य मंडल से निकल कर रक्तवर्ण की मलिन विद्युत चन्द्रमंडल में प्रवेश कर रही है। भैंसे की आकृति वाले बादल एक पर एक चढ़कर दौड़ रहे हैं। धूम्रवर्णी संध्या क्रमशः मुझे घेरने चली आ रही है। प्रकृति अँगुली उठा कर कह रही है कि चेतो! मूर्तिकार की सर्वश्रेष्ठ कृति, सृष्टि का उपहार, पृथ्वी का सौन्दर्य पीड़ा में पनपता है। यह सनातन नियम है।
रानी: हाय महाराज! यह क्या?
राजा: और सुनो प्रिये! देखा कि विद्युत और धूलि से युक्त वायु अन्य वायु के साथ उर्ध्वगामी हो रहा है। दक्षिण दिशा की ओर गंधर्वनगर उग आया है। वहीं से एक प्रशस्त भाल ब्राह्मण सन्यासी याचक की मुद्रा में मेरे पास आता है, और वक्रहास के साथ मेरा सारा राजपाट मुझसे माँग लेता है। मैं यह कहकर कि लो दिया, संकल्प-जल धरती पर छोड़ता हूँ। फिर वह तिरोहित हो जाता है। नींच उचट गयी है। वही अब तो राज्याधिकारी है, मैं उसका आज्ञाकारी दास हूँ। मैं उसी विप्र सन्यासी को कब से पुकार रहा हूँ।
रानी: महाराज! स्वप्न स्वप्न है। सत्य नहीं। सपने को अपना मानकर क्यों बेचैन हो उठे हैं?
राजा: वल्लभे! आँख खुली है तो जो दृश्य है वही सत्य लगता है। पर आँख बन्द हुई तो यह मिथ्या, सपना नहीं हो जाता है। बन्द आँखों से जो दिखायी देता है क्या वह सत्य नहीं लगता है? कौन सत्य है, कैसे निर्णय हो! जब दिया तो दिया। क्या बन्द आँख, क्या खुली आँख - "धर्मस्य तत्वं निहितो गुहायाम्"।
रानी: ( टपकते हुए अश्रुजल से आर्द्र कपोलों को पोंछती हुई ) हृदय वल्लभे! मैंने भी बड़ा भयंकर स्वप्न देखा है। देखा है कि कनेर वृक्ष के फूल और पत्ते गिर रहे हैं। मैं उसी पुष्पपादप के नीचे बैठी हूँ। ऊपर एक विशाल लौह घंट लटक रहा है जो मेरे सिर पर अब गिरा तब गिरा। लाल माला से मेरे दोनों हाथ बाँध दिए गए हैं। भयंकर विकृत रूप वाली काली स्त्री रोहित को मुझसे दूर कहीं निर्जन झाड़ी में घसीटे लिए चली जा रही है। आप तैल्याभ्यक्त शरीर विभूति पोते लड़खड़ाते किसी कृष्ण सर्प के भय से भागते हुए दीख रहे हैं, और आप जैसा ही वर्णित तपस्वी मेरे भी अत्यंत समीप खड़ा हो गया है। उसकी क्रोधारुण आँखें देख भय से मैं जग गयी हूँ।
राजा: वल्लभे! शास्त्र वचन और परमात्मा कृपा का अवलंब लो। "जो पै राखिहैं राम तो मारिहैं को रे" ।कुल पुरोहित से शांति पाठ करा लो। विप्रों को दक्षिणा देकर संतुष्ट करो। रक्षासूत्र मेरे लाल की कलाई पर बाँध दो ताकि यदि कोई अनिष्ट हो तो उसका निवारण हो जाये। किन्तु स्मरण रखो प्रिये! तुम हरिश्चन्द्र की अर्धांगिनी हो। जागो, उठो। सपनों में ही मत खोयी रहो, साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो। उससे, केवल उससे ही तादात्म्य स्थापित करो। छायाभासों को शान्त होने दो। यदि सपने ही देखना चाहो तो शाश्वत प्रेम, अखण्ड सत्य और निष्काम सेवाओं के ही सपने देखो। जागो, जागो। दाता ग्रहीता को पुका रहा है। मेरी पुकार में और बल दो। रोहिताश्व को ईश्वर अनुकंपा का रक्षासूत्र बाँधो। ’मंगलायतनो हरिः’। अरुणोदय बेला उपस्थित होने को है। सुनो, बंदी गा रहे हैं। प्रभात का स्वर मुखर है। राजकाज में हम सेवाभाव से संलग्न हों। संयत हो जाओ। अधमरा जीना भी क्या जीना। वीर वधू हो। जागो, जागो।
तृतीय दृश्य - ( राजा हरिश्चन्द्र का राजदरबार। हरिश्चन्द्र विकल, आँखे जैसे किसी को खोज रही हैं । )
राजा: विप्र देवता को आदर के साथ यहाँ ले आओ।
द्वारपाल: जो आज्ञा महाराज!
राजा: ( उठ साष्टांग प्रणाम करते हुए ) आइए विप्रवर! सपरिवार हम आपका अभिनन्दन करते हैं। आसनासीन होने की कृपा करें।
विश्वामित्र: रे क्षत्रिय कुल कलंक! बड़ा बना है बैठाने वाला। बैठ चुके, बैठ चुके। (हाथ उठाकर क्रोध से काँपते अधरों से) अरे पापिष्ट! धिक्कार है तेरी सत्यवादिता को। मिथ्यावाद का सहारा लेकर धर्मनिष्ठा का दुंदुभिनाद करते तुम्हें लज्जा नहीं आती है। कहाँ गया तेरा वचन! किस भाड़ में जल गया तेरा दान! कहाँ मर गया तेरा संकल्प! अरे नराधम मुझे पहचानता नहीं?
राजा: क्रोध शांत हो प्रभु! कुछ भ्रम हो रहा है। अपना परिचय देने का अनुग्रह करें।
विश्वामित्र: रे मू्ढ़! क्यों पहचानेगा तूँ? कुछ क्षण पहले की हो तो बात है। सारी पृथ्वी तूने मुझे दान कर दी थी। सारा राज्य मेरे हाथों में देकर क्या झूठे दानी बनने का स्वांग किया था! तुम्हारा पतन हो जायेगा। तू अभी स्वयं राजा बना बैठा है।
राजा: ( पैरों पर गिरकर ) महाराज! क्षमा कीजिए। स्वप्न में की गयी दान-क्रिया के पात्र को पहचान नहीं पाया। अब आपको जाना है। अपराध क्षमा हो। राज्य आपका है। आप राजा हैं। हम अनुचर। आपकी आज्ञा के अनुसार कार्य का निर्वाह करेंगे। मेरी सत्यनिष्ठा को कलंकित न करें देव! सत्य नहीं तो हम नहीं। अस्तित्व तो सत्य का है, व्यक्ति का नहीं। सत्य ही मेरा चिरंतन तारुण्य है। सत्य ही मेरा सनातन सौन्दर्य है। मेरी सत्यनिष्ठा नाशमय की परवाह नहीं करती। मेरी दानशीलता मेरे चेतना के क्षितिज पर निरविच्छिन्ना ज्योति-सरिता सी निरन्तर बहती रहती है। आप आज्ञा करें। दास स्वीकार करने को तत्पर है।
विश्वामित्र: ( टपकते हुए अश्रुजल से आर्द्र कपोलों को पोंछती हुई ) अरे शेखी बखारने वाले पाखंडी! यदि तूँ सचमुच सूर्यवंशी है, यदि तुम्हें सचमुच अपने वचन का निर्वाह करना है तो दे मेरी पृथ्वी!
राजा: तैयार हूँ देव! अब विलम्ब क्या! मैं तो पहले से ही सिंहासन खाली कर भूमि पर आसीन हूँ।
विश्वामित्र: दान के बाद की दक्षिणा कहाँ है?
राजा: ( मंत्री की ओर देखकर ) आमात्य! एक सहस्र स्वर्णमुद्रायें दक्षिणा-स्वरूप कोष से लाकर विप्र को प्रदान की जाँय।
विश्वामित्र: ( तमतमाते हुए ) रे अभिमानी! अभी क्या तुम कोष के अधिकारी ही बने बैठे हो! जब सब दान में दे दिया तो क्या खजाना खँगालने से बाज नहीं आयेगा। सारा राज्य, कोष, गृह, परिचर अब मेरे हैं। एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना निकल जा यहाँ से। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी धर्मपत्नी और तुम्हारे तनय के अतिरिक्त कुछ भी तुम्हारा नहीं है। बंधन, मर्यादा, लाज, शील, विवेक को तिलांजलि मत दो। जा बाहर! रही दक्षिणा की एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ! इसके लिए तुम्हें एक माह का समय देता हूँ। समय चुका तो मैं अपना ब्रह्मदंड गिरा कर तुम्हें चूर-चूर कर दूँगा।
राजा: विप्रदेवता! ब्रह्मदंड से अधिक मुझे सत्यदंड का भय है। मुझे आज्ञा दें। समय के भीतर ही आपकी दक्षिणा चुका दूँगा। वचन ही हमारा धन है। मैं चला। गुरुवर चरणों मे सादर प्रणाम है।
( राजा पत्नी शैव्या और पुत्र रोहिताश्व को लेकर राजमहल से बाहर निकल पड़ते हैं। पुत्र, पत्नी समेत अंजलि जोड़कर अपनी प्रिय प्रजा और पुरी को प्रणाम करते हैं। )
विश्वामित्र: ( स्वगत ) अभी तो तुम्हे लक्ष्मी भ्रष्ट किया है। अब तुम्हें सत्य भ्रष्ट करके ही दम लूँगा। (प्रकट) जा क्षत्रिय राजा! जल्दी जा! दानी मोह को भी छोड़ने में नहीं हिचकते। हाँ, ध्यान रखना अपने इतने बड़े दान की दक्षिणा का। माह की अवधि भूले नहीं।
( हरिश्चन्द्र चल पड़ते हैं। सोचते हैं कहाँ जाऊँ? सब तो दान दे दिया। उस ब्राह्मण की आँखे पीछे लगी हैं। पत्नी-पुत्र छाया की तरह पीछे-पीछे चले जा रहे हैं )
रानी: मेरे प्राणनाथ! कहाँ चलेंगे? यात्रा के अपशकुन हो रहे हैं। सूर्य को परिवेश से घिरा हुआ देख रही हूँ। पीछे शब्दसहित धूम जैसी आकृति वाली घिरी बदली है। दाहिनी आँख फड़क रही है। सामने ही रिक्त घट पड़ा है। मन में अशान्ति-सी है। क्या होना है?
राजा: धर्मज्ञे! जीवन की सफलता किसमें है? मायावाद की मनोहारिता में, भोगवाद की सरसता में, बन्धु-बांधव की अनुरक्ति में नहीं; सत्य की उपासना में, सद्धर्म के आचरण में। जो हो रहा है या जो होगा सब हमारे करुणा वरुणालय प्रभु का खेल है। जीवन की चिन्ता नहीं, जीवनादर्श की चिन्ता करो। वास्तविक सुख और शान्ति उसके लिए है जो अपने को एक साथ ही वज्र के समान कठोर और पुष्प के समान सुकोमल बनाने में समर्थ होता है।
रानी: (आँसू पोंछती हुई) कहाँ चलना है?
राजा: सोचता हूँ काशी चलेंगे। यह त्रिभुवन से न्यारी है। भगवान भूतभावन शिव के त्रिशूल पर बसी है। वह किसी के राज्याधिकार में नहीं है। विश्वेश शिव हैं। धन नहीं, तन तो अपना है। हम अपना शरीर वहाँ बेचकर ब्राह्मण की दक्षिणा चुकाएँगे। शिवपुरी ही शरण है।
"गंगातरंग रमणीय जटाकलापं गौरी निरंतर विभूषित वामभागं।नारायणप्रियमनंगमदापहारं वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाथ॥वाराणसी पुरपते मणिकर्णिकेश वीरेश दक्षमखकाल विभोगणेश।सर्वज्ञ सर्व हृदयैक निवासनाथ संसार दुःख गहनज्जगदीश रक्ष॥"
चतुर्थ दृश्य - ( काशी क्षेत्र का प्रवेश स्थल )
(रोहिताश्व प्रसन्न होकर गंगा जल स्पर्श करता है। रानी सावधानी से उसकी बाँह पकड़े है।)
गंगा पुष्प माला की तरह काशी पुरी के अधिपति विश्वनाथ के गले में झूल गयी है। सादर प्रणाम करो!
रानी: महाराज! सुना है भूप भागीरथ ने अपने तपोबल से गंगा का यहाँ अवतरण कराया। जब से यह धराधाम पर प्रवाहित है तबसे इसमें स्नान करके न जाने कितने काक पिक हो गए और कितने वक मराल हो गए। हे सुरसरि! हमें सत्पथ पर चलते रहने का बल दो। ’जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं’। तुम्हारा नाम लेने से यमत्रास मिट जाती है। तुम्हारे जल का दर्शन करने से सारे ताप शमन हो जाते हैं। हम अकिंचन आज आप से सत्य-निर्वहन की भीख माँगते हैं। क्षत्रिय राजा और क्षत्राणी रानी की झोली भर दो माँ! ’भागीरथी हम दोष भरे पै भरोस यही कि परोस तिहारे’। (सिर झुकाकर प्रणाम करती है।)
राजा: देवि! यह सरिता नहीं, प्राणशक्ति है। गंगा बिन्दु बिन्दु में गोविन्द दरसतु है। किनारे ऋषियों के आश्रम हैं, घाट हैं, तरुमालाएँ हैं, इनका सुख कम नहीं है। पुष्प गंध से महमह करती फुलवारियों का मूर्ख माली ही एक पंखुड़ी के टूटने पर पश्चाताप करता है। कालचक्र का सम्मान करो। कुसुम से कुलिश बनने की कला कायाकल्प किए बिना रीता नहीं छोड़ेगी। अब हम पुरी के गर्भ गृह में प्रवेश करें, इसके पहले कोतवाल भैरव को नमन करें।
सभी : काशिकापुराधिनाथ काल भैरवं भजे।
(सिर नवाकर प्रणाम करते हैं। सभी थके पाँव मन्द गति से काशी की गली में प्रवेश करते हैं।)
राजा: देखो देवि! क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि यहाँ अद्भुत सत्य का आचमन हो रहा है। नटराज महाकाल की गोदी में मुक्ति बालिका ठुनक रही है । विश्वातीत ब्रह्म यहाँ की रज रज में लोट-पोट रहा है। यह भूमि तो दैदीप्यमान मातृत्व की अनुपम तेजस्विता ही है।
रानी: हाँ आर्यपुत्र! निःसन्देह यहाँ शान्ति का चिन्मय साम्राज्य है। पर न जाने क्यों मेरा मन एक अज्ञात अंधकूप के अंतराल में उतर रहा है। मेरे जीवन के पल को कोई अज्ञात अपनी धूपदान में डाल कर जला रहा है। क्लेशकर्षिता मैं क्या करूँ?
राजा: देवि! अन्तर की आहों का ज्वालामुखी फूटे उसके पहले ही हमें बन्धन तोड़कर सत्यमेव जयते की दुन्दुभि बजा देनी है। यह तुम्हारी साधना की सुहागरात है। दुख का मोल सुख से अधिक है। शांति तन से नहीं मन से मिलती है। सत्य निष्ठा के तैजस परमाणुओं में प्राणों का होम ही द्वंद्वातीत शांति है। तुम तो विवेकशीला हो। क्या गण्डकी की वेगवती लहरों में थपेड़े खाता, रगड़ाता पाषाण खंड शालिग्राम-शिला नहीं बन जाता?
रानी: आर्यपुत्र की जय हो! होनहार क्या है, कौन जान पाए?
राजा: (गली में घूमते हुए) अरे, सुनो काशीवासी लक्ष्मीपात्रों, सेठ साहूकारों, पुण्यात्मा धनी मानी महापुरुषों! किसी कारणवश पैसों की नितान्त आवश्यकता है। सपत्नीक एक दास अपने को बेच रहा है। कोई कृपा करके खरीद लेता। एक हजार मुद्राओं की आवश्यकता है। अरे सुनो भाई!
(कहते हुए इधर उधर भटक रहे हैं। रानी और रोहिताश्व लोगों की ओर तो कभी राजा के मुख की ओर निहार निहार कर रो रहे हैं। राजा स्वतः विचारों में डूबे हैं। सोच की मुद्रा है।)
कभी नर विक्रय को अन्याय मानने वाला मैं स्वयं ही यह कर्म कर रहा हूँ। हाय रे दैवगति। धरती फट जाती तो समा जाता। किन्तु ब्राह्मण की दक्षिणा दिए बिना….। (फिर गुहार लगाते हुए)….अरे, कोई दाता है जो हमें खरीद लेता! भाईयों कृपा करो।
(रोहिताश्व माँ का आँचल पकड़े सिसक रहा है। रानी पलकें पोंछ रही है। एक अग्निहोत्री ब्राह्मण अपने शिष्य के साथ सामने आता है।)
ब्राह्मण: देखो, यह कुलीन घर का बालक और किसी राजगृह की रमणी है। यह पुरुष भी दिव्यवपु लग रहा है। बात क्या है? क्या इसका पुण्यकाल समाप्त हो गया?
(सामने जा कर खड़े हो जाते हैं। राजा प्रणाम करता है।)
शिष्य: मेरे गुरुदेव! आपको गृहकार्य के लिए एक दास या दासी चाहिए। सम्पूर्ण दिवस यज्ञादि तथा शास्त्र-शिक्षण, शिष्योपदेश में ही बीत जाआ है। अतः गुरुपत्नी की संभाल एवं विप्रकुलोचित सुश्रुषा के लिए सेवक खरीदा जा सकता है।
ब्राह्मण: तुम यह कार्य कर क्या रहे हो और यह बताओ क्या कर सकते हो? कैसे रहोगे? क्या है तुम्हारा मोल?
राजा: क्यों कर रहा हूँ, नहीं बता सकता। हाँ इतना जान लें कि ब्राह्मण की दक्षिणा चुकानी है। कर क्या सकता हूँ, मैं क्या जानूँ! जो भी स्वामी का आदेश होगा, करूँगा। जहाँ भी, जैसे भी, जिस हालत में रखेंगे, रहूँगा। सब सहर्ष स्वीकार है। किसी भाँति द्विज ऋण तो मिटे।
ब्राह्मण: जल भरने, आसन, वस्त्र, कमरे साफ करने, बाहर झाड़ू लगाने, पुष्प चयन करने तथा अन्य वाह्य क्रिया-कलापों में सामान आदि लाने ले जाने का कार्य करना होगा। स्वीकार है?
राजा: हाँ श्रीमान! सब स्वीकार है।
ब्राह्मण: तुम्हारा दुर्दिन देखकर तुम्हें खरीद ले रहा हूँ, लेकिन ब्राह्मण का क्रोध उसकी नियम-निष्ठा को याद रखना। रंच भर भी क्षमा नहीं, और हाँ मैं पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ दूँगा। इससे अधिक नहीं। ये लो मुद्राएँ। जल्दी चलो। मेरे हवन का समय हो रहा है। अधिक उधेड़ बुन करनी हो तो जा आगे बढ़। हम चले।
(रानी दौड़कर पैर पकड़ती है।)
रानी: नहीं धरती के देवता! ऐसा न करें। मेरे प्राणनाथ संकट में हैं। मैं उनकी अर्द्धांगिनी किस काम आऊँगी। मुझे खरीद लें, मैं सब काम करूँगी। पर-पुरुष संभाषण एवं उच्छिष्ट भोजन छोड़कर आप जो कहेंगे, मैं सब करूँगी। मैं और मेरा नन्हा रोहित आपकी सेवा में वैसे ही लगे रहेंगे, जैसे काया के पीछे छाया ही लगी रहती है। (हाथ फैलाकर भीख माँगती हुई) हे परोपकारी देवता! आप हमें खरीद लें। मैं अपने आर्यपुत्र का म्लान मुख नहीं देख पा रही हूँ। देवता कृपा करें! (बिलखती है।)
रोहिताश्व: (माँ की भाषा में) हमको खरीद लें बाबा, बड़ी कृपा होगी।
ब्राह्मण: ठीक है। नर या नारी कोई भी हो, मेरा कार्य हो जाएगा। यह स्त्री मेरे बर्तन वस्त्र आदि धो लेगी, गृह मार्जनी कर लेगी और यह लड़का पूजा के पात्र धोएगा, फूल तोड़ ले आएगा, यज्ञ की लकड़ियाँ एवं उपले बटोरेगा। लो पति परायणे, ले लो स्वर्ण मुद्राएँ।
(रानी के हाथ पर रखता है। रानी वह सोना राजा के दुपट्टे में बाँध देती हैं। रोहित माँ का आँचल पकड़ कभी इनका, कभी उनका मुख देख रहा है।)
राजा: (उद्विग्न होकर) हाय रे विधाता! पहले जिसे राजरानी बनाकर रखा, आज उसी को नौकरानी बना रहा हूँ। क्या यह दिन भी देखना बाकी था! राजपुत्र को चाकरी करनी होगी। मैं क्यों जन्मा ही धरती पर। सत्य तुम्हारी जय हो, तुम्हारी जय हो।
रानी: आर्यपुत्र! आज्ञा दें कि मैं क्षण भर के लिए जी भरकर आपको देख लूँ, फिर तो इस मुख का दर्शन दुर्लभ हो जाएगा। कहाँ आप कहाँ मैं।
(पाँव छुकर बार-बार क्षमा याचना करती हैं। राजा उनका सिर सहला रहे हैं। आँखों में आँसू उमड़ आए हैं।)
ब्राह्मण: बन्द करो यह सब चरित्र। मैं चल रहा हूँ। शिष्य है, उसके साथ आ जाओ।
(ब्राह्मण जाता है। शिष्य बार बार चलने को कह रहा है, रोहित की बाँह पकड़ कर खींच रहा है। वह माँ से लिपट-लिपट जाता है।)
रानी: अब आज्ञा दें महाराज! अपनी कमलिनी को सूर्य दूर क्षितिज में रहकर भी तो जिलाए रखते हैं। (ऊपर की ओर दृष्टि करके, हाथ जोड़कर) ओ ब्रह्माण्ड को ज्योतित करने वाले ज्योतिपुंजों, ओ अनंत के धाराधर, ओ व्योम, ओ सोम, ओ सूर्य! मेरे आर्यपुत्र की सत्य की धरती के लिए अमृत दो! ओ देवगुरु, ओ वृहस्पति, ओ अमृत कवि, ओ भार्गव, ओ पावक, ओ मरुत! मेरे आर्यपुत्र की सत्य की धरती के लिए अमृत दो! ओ मरीचि लोकोद्गमों, ओ सप्तर्षि मण्डलों, ओ ऋक्, ओ साम, ओ यजुः! मेरे आर्यपुत्र की सत्य की धरती के लिए अमृत दो! ओ शिव, ओ महाकाल! आप अपने इन धर्मध्वजवाहक धरणीपति को सत्य की रक्षा के लिए अमृत दो, संजीवनी दो!
(इसी बीच पैर पटकते हुए क्रोध से आँखें लाल किए विश्वामित्र का प्रवेश।)
विश्वामित्र: ओ दानी, ला दे मेरी दक्षिणा! महीना भर बीत गया। सायंकाल होने को है। यहाँ कैसा नाटक फैलाया है तुमने!
हरिश्चन्द्र: महाराज! आधी स्वीकार कीजिए। शेष स्वयं को बेचकर अभी चुकता कर देता हूँ।
विश्वामित्र: आधी क्यूँ? सीधे कह दे, नहीं देना है। यह भी ले जा। ऐरा गैरा समझ रखा है क्या?
राजा: प्रभु अभी दिन शेष है। स्त्री-पुत्र को बेचकर आधा धन पाया, वह आपको समर्पित है। शेष स्वयं को बेचकर तुरंत दे दे रहे हैं। क्रोध शान्त हो, विप्र देवता!
विश्वामित्र: देख रे क्षत्रिय! मैं वही विश्वामित्र हूँ जिसके तपोबल से विधाता की सृष्टि काँपती है। तुम्हें अभी ब्राह्मण का ऋणी होने के कारण शाप नहीं दिया, इतना शुभ जानो। यदि आज की सायंकालीन आरती की बेला तक मेरी पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ नहीं दिया तो शाप देकर तुम्हारे सिर को खण्ड-खण्ड कर दूँगा। अभी जाता हूँ, फिर आऊँगा।
राजा: (शैव्या से) हे देवि! व्रत धारिणी प्रिये, जा! उपाध्याय की सेवा मन लगाकर करना। गुरु पत्नी को गुरु समान आदर देना। शिष्यों को पुत्र भाव में देखना। स्वधर्म और शील की रक्षा करना।
“समय की गति निराली है, प्रकृति का ढंग अपना। किसी का सत्य निर्मम है, किसी का नर्म सपना। कहेगा कौन पिक गाए न चातक यों न रोए। विजन वन का सुमन हूँ, मैं सुरभि अपनी सँजोए..।”
जाना तो है ही वल्लभे, जा!
(रानी जाती है। शिष्य बालक को घसीट कर ले जाता है। अंतरिक्ष से हाय, हाय की ध्वनि गूँजती है।)
अवर्णनीय कष्ट है इस धर्मधुरीण को। कितना हृदयहीन है विश्वामित्र!
राजा: (हाथ जोड़्कर) अरे सेठ साहूकारों! मुझे कोई पाँच सौ स्वर्ण मुद्राओं में खरीदकर मुझ पर कृपा कर देता। ब्राह्मण देवता का ऋण चुकाना है। ब्राह्मण के लिए मेरी गुहार सुन लो। मुझे खरीद लो। भईया मुझे खरीद लो। ब्राह्मण देवता आते ही होंगे। मैं झोली फैलाकर भीख माँग रहा हूँ, बड़ी कृपा होगी। हे दानशीलों! इस दीन पर दया करो, दया करो। अपनी सदाशयता का परिचय दो। अरे, कोई भी नहीं सुन रहा है। विश्वेश्वर की नगरी में भी मैं अनाथ हो गया। हाय रे विधाता!
(धर्म का प्रवेश)
धर्म: यह मेरे लिए इतना कष्ट सह रहा है। इस सत्य व्रती की कातरता तो देखते नहीं बनती। अब मैं आगे चलता हूँ। सत्य-पथ की इस यात्रा का न तो इसे पता है न मुझे। अंत तो इस यात्रा का है ही नहीं।
(धर्म चाण्डाल का वेष धारण करता है)
चाण्डाल: हाँ भैया! कहाँ बिकवइया है। खरीदवइया आ गया।
राजा: आप कौन हैं दयावान?
चाण्डाल: हम चंडाल, डोम के राजा। बसेरा मसान में है। नदी के दोनों तीर-यही इस डोम का डेरा है। यहीं मसान में सोता जागता हूँ। हर चिता को आग देता हूँ। हर मुर्दा से तन का कपड़ा माँगता हूँ, बिना आधा कफन दिए लाश नहीं जलती मेरे मसान पर। तो साफ-साफ सुनो, मसान पर रमना होगा, कफन खसौटी करना होगा। यदि मंजूर हो तो बताओ और यह रुपया ले गठियाओ!
राजा: (स्वयं से) बड़ा दारुण समय उपस्थित है। झुक जाओ मेरे सिर सत्य, धर्म की जिज्ञासा भरे प्रश्न के सामने! गिर जाओ हे ग्रन्थ, ज्ञान, विज्ञान, संस्कार, स्वभाव मेरे सिर पर के निरर्थक भार से तुम इस मिट्टी पर! हे प्रत्युत्तरहीन महाप्रश्न! जिसने तुम्हें उत्तीर्ण कर दिया, उस दिव्य धर्म की जय हो! (चाण्डाल से) हे दयालु पुरुष! यहाँ मैं हूँ, यह मैं हूँ। आपका क्रीतदास हुआ।
चाण्डाल: तो अब लोटा-सोंटा-पगरी-झोरी लेकर पयान करो। दक्खिनी मसान अब तुम्हारी जिम्मेदारी पर।
(राजा सिर झुकाकर स्वीकार कर रहा है। इसी बीच विश्वामित्र का आगमन।)
विश्वामित्र: क्यों रे! ला, दे मेरी दक्षिणा। नसों में संचरित होने वाले आवेश का रुधिर-वेग अब तक रोके था। अब तेरे सर्वनाश का समय उपस्थित हो गया है। कालपुरुष को मैं अविराम उस दिशा में दौड़ते हुए देख रहा हूँ, जहाँ शान्ति तो होगी पर ऋषि-आश्रमों की नहीं श्मसान की।
राजा: ऋषिवर! पराक्रम उस पर शोभा देता है जो रण में हो, न कि उसपर जो शरण में हो। मैं आपके पाँव पकड़ता हूँ। आप क्रोध को शांत करें, ये रहीं पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ। अपनी दक्षिणा स्वीकार करें। अब मैं उऋण हुआ।
विश्वामित्र: (विश्वामित्र साश्चर्य मुद्रा ग्रहण करते हुए, स्वगत) इस परीक्षा में यह अभी तक स्वयं को संभाले रहा, लेकिन मैं भी विश्वामित्र हूँ, मजा चखा दूँगा। इसको अपने सत् पथ से गिराना ही होगा। मैंने देवराज इन्द्र के सामने चुनौती स्वीकार की है। (चले जाते हैं)
चाण्डाल: हर मुर्दे के पीछे घूम-घूम कर कपड़े ले लेना होगा, और सुबह शाम मटके से भर कर पानी भी घर में रखना होगा।
राजा: जो आज्ञा।
सबै दिन होत न एक समा्न।
एक दिन राजा हरिश्चन्द्र सम्पत मेरु समान।
एक दिन भरत डोम घर पानी, अम्बर हरत मसान।
सबै दिन होत न एक समान॥
पाँचवा दृश्य - ( ब्राह्मण की कुटिया का दृश्य। कुटी में रानी शैव्या झाड़ू लगा रही हैं। रोहिताश्व पीछे से आकर रानी की आँख बन्द कर देता है। )
रानी: देख बेटे! अश्रु नदियों और पीड़ा पर्वतों की मैं राजरानी हूँ। अभी तुमने पीछे से आकर अपने कोमल हाथों से मेरी आँखें बन्द कर दीं; तुम्हारी अँगुलियों ने सुस्पष्ट भाषा में मुझे बताया, “सृष्टि में विकलता को देखने की अपेक्षा अंधता ही बेहतर है।” अब अपने लाल का मृदुल तन छाती से लगाया तो मुझे लगाया तो मुझे लगा, लालने दुलारने योग्य है दुनिया की हर चीज। केवल यही मृदल कोमल हाथ सुदृढ़ कर सकता है मंगलसूत्र की गाँठ को। बेटे आगे आ जा। बैठ यहाँ।
रोहित: माँ! पिताजी को बुला लो। कहाँ हैं, कहाँ हैं? हमारा जी जिस किसी भी भाँति उन तक पहुँच जाने के लिए बेचैन हो रहा है।
(रोने लगता है)
रानी: वे कहाँ हैं यही तो जिज्ञासा है। रो मत लाल। बार-बार चू पड़ने वाले तुम्हारी आँख के ये मोती मूल्यवान हैं हजारों सिक्कों से। सम्भव है तू आगे बढ़कर संसार की सजल आँखे पोछने की चेष्टा करोगे। तुम्हें आलिंगन में ले मैं उन्हें पा लेती हूँ।
रोहित: आज माँ, मुझे कलेवा करा देना अपने हाथ का। कब गुरु जी तत्काल तुम्हें कहाँ और मुझे कहाँ भेज दें, पता नहीं। तब तक पूरे प्रकाश की उपस्थिति होने के पहले ही दौड़कर मैं फूल तोड़ लेता हूँ।
( डलिया लिए फूल तोड़ने के लिए अंधेरी फुलवारी की ओर लपकता है। रानी उसकी ओर मौन देखती रह जाती है। फिर बर्तन धोने लगती है। तभी धड़ाम से गिरने का शब्द झाड़ी के बीच सुनायी देता है। रानी उठ कर जाती है। )
रानी: दौड़ो रे, बचाओ! मेरी आँख के आगे ही एक विशालकाय काला नाग घूमते हुए जा रहा है। उसने ही रोहित को डँस लिया है। आवाज भी नहीं निकली। शरीर काला हो गया है। मुँह से फेन बह रहा है। मेरी आँखों के सामने ही फूल की डलिया उलटी पड़ी है।
(इसी बीच रोहित की अंतिम हिचकी आती है। उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। रानी चीत्कार करती हुई गिर पड़ती है। ब्राह्मण कुछ शिष्यों के साथ दौड़कर आते हैं।)
ब्राह्मण: अरे, यह तो मर गया। मेरी फूलबगिया में मृत शरीर! मंडप अशुद्ध हो गया। लेकर भाग इसे श्मसान घाट। आज तो पर्व का दिन है। किसी को साथ लगा भी नहीं सकता। जा, चली जा। जा, बहती गंगा में इसे फेंक देना। कल सायंकाल तक अंतिम क्रिया करके चली आना। आगे समय नहीं दूँगा। ठीक से सुन लो! मरना-जीना तो लगा ही रहता है। कितने मरते हैं मरघट पहुँच कर अपनी आँखों देख लेना। मृत काया अधिक समय तक नहीं रखी जाती। वह प्रेताविष्ट हो जाती है। तुम इसे उठा ले ताकि स्थान धुलवाया जा सके।
रानी: यह चक्रवर्ती सम्राट का बेटा है विप्रवर! इसका शरीर यहाँ वसन विहीन मृत होकर पड़ा है। कम से कम प्राणशून्य इस अबोध बालक का शरीर ढ़्कने के लिए वस्त्र की व्यवस्था तो कर देते। मैं माँ हूँ। आप मेरे और मेरे इस कलेजे के टुकड़े-दोनों के बाप हैं।
(छाती पीट-पीट कर रोती है। कभी रोहित का मुँह चूमती है तो कभी उपाध्याय से गिड़गिड़ाती है।)
ब्राह्मण: मैं आज व्रतनिष्ठ हूँ। ईश्वर-चर्चा के अतिरिक्त और कुछ नहीं सुनना है मुझे। भागती है या….(क्रोधित होते हैं)
रानी: हे अन्तरिक्ष के साक्षी देवों! आज यह तेरी नृप वधू अपने चक्रवर्ती पुत्र को लेकर श्मसान भूमि जा रही है; यह कितना श्रुतिसम्मत है इसका प्रमाण कौन देगा!
(आधा आँचल फाड़कर पुत्र को ढँकती है। अकेले रोहित को उठाये श्मसान की ओर चल देती है।)
छठाँ दृश्य - ( श्मसान का भयानक वातावरण। मरघट भूमि में चिताएँ जल रही हैं।
राजा सतर्क दृष्टि से प्रत्येक नवागत शव को खोज-खोजकर कफन इकट्ठा कर रहे हैं। इस कोने से उस कोने तक घूम रहे राजा की गंभीर मनःस्थिति है। )
क्वचित वीणावाद्यं क्वचिदपि च हाहेति सदनं ।मेरी पीड़ा को मेरा विक्षिप्त हृदय दुहरा रहा है। जब मैं दृष्टि गड़ाकर देखता हुँ तो यह विश्वलुप्त हो जाता है। फूँक मारकर फुलाता हूँ तो मनुष्यता फूट जाती है। हारी हुई बुद्धि घोषणा करती है कि जीवन व्यर्थ का अध्ययन है, बेगार है।
न जाने जगतोयं किममृतयम् वा विषमयम् ॥
(हरिश्चन्द्र दण्ड लिए श्मसान की हर छोर नाप रहे हैं, जोर जोर से बोलते हुए चेतावनी देते जा रहे हैं….)
राजा: अरे लोगों सुनो! मेरे मरघट के राजा की आज्ञा है कि बिना कफन का आधा वस्त्र कर में चुकाए कोई भी शव को नहीं जलाएगा। मेरे अधिकार में यह श्मसान घाट है। बिना कर दिए मुर्दा जलाने वाले को दण्ड दिया जाएगा। सुनॊं मुर्दा लाने वालों! बिना कफन का कर दिए मुर्दा नहीं जलाना है….सुनो, सुनो! खबरदार!
(रोहित को दोनों हाथों से छाती में चिपकाए शैव्या प्रवेश करती है। श्मसान के एक कोने में शव
भूमि पर रखकर करुण विलाप कर रही है।)
रानी: हाय रे मेरे लाल! मेरे सुगना, तू कहाँ उड़ गया। अब किसे कलेजे लगाकर जिऊँगी। किसके मुख को देखकर निहाल बनूँगी। जाग बेटे, देख तेरी मैया कलेवा लेकर बैठी है। एक बार तो उसके हाथ से कलेवा कर ले। कब से पुकार रही है तेरी माँ! कौन मेरी आँख बन्द करेगा! कौन माला की तरह गले में झूल जाएगा! बेटा, एक बार तो आँख खोल दे! तेरा विहँसता हुआ मुख देखकर अपने प्राणनाथ के वियोग का सब दुख हँस-हँस झेल गयी! मेरे आँखों की पुतरी! तुम एक बेर तो बोल दे मेरे लाल! सब विद्यार्थी आ गए हैं, पूजा की बेला बीत रही है। उपाध्याय बुला रहे हैं, उठ जा रे बेटा!
राजा: (चौकन्ना होकर) अरे इस नारी का विलाप सुनकर तो कलेजा मुँह को आ जा रहा है। क्या बात है कि मन खिंचा चला जा रहा है। आवाज कुछ पहचानी सी लग रही है। जगत की कोलाहलपूर्ण नीरवता में कोई दिव्यात्मा पंचतत्वों के बंधन काटकर मृत्यु का वरण कर रही है। यह कौन सा मधुर स्पर्श है, जो मुझे छू रहा है।
रानी: हाय! हाय! जीवन नीरस स्थाणु हो गया है। वात्सल्य का उद्दाम ज्वार उतर गया है। हाय रे काल निर्मोही, तूने मिट्टी की कुँवारी सुगन्ध छीन ली। घर की एकमात्र टिमटिमाती लौ को फूँक मार बुझा दिया। अब कौन रूठेगा, कौन मचलेगा अपनी मैया के आगे! उठ जा लाल, मुझे घर की गैल बता दे बेटे! मन को मगन कर देने वाले रोहित, क्या माँ से नहीं बोलोगे?
राजा: अरे रोहित! इस नाम ने तो अनाम पीड़ा पैदा कर दी। किसी नई जलने वाली चिता की ओर चलूँ। मेरे रोहित के नयन, वयन, हलन-चलन, आकुल आलिंगन, विदा की बेला का आश्वासन, आह्वाहन-सब मेरी आँखों के आगे नाच गया। बेटे की दुग्ध-धारा सी निर्मल मुस्कान….। ओ! यह कौन माता है जो रो रोकर मरी जा रही है। अपने धड़कते, कसकते, मचलते जीवन की धरती पर आँसू की माला बरसा रही है।
रानी: नक्षत्रों, अपने लोक का पथ अवलोकित करो! आज पृथ्वी का महापुत्र यात्रा कर रहा है। ओह आकाश! अपने उद्यान के मधुर उज्ज्वल पुष्पों को इस महाअतिथि की यात्रा के पथ पर विसर्जित करो। अरे ओ बरसाती मेघमयी रजनी! इस अबोध बालक पर जिसने अपनी ही नहीं संसार की आँखों का उजाला खो दिया है, उस पर करुणा करो। मेरे बेटे! हो सकता है मेरा शरीर अभी मिट्टी में विलीन हो जाय, किन्तु तब भी तुम में जीवित रहेगी मेरे जीवन की सार-सत्ता…। रोहित में शैव्या, शैव्या में रोहित। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती ऐसे जीवन की, जिसमें चिड़िया का गाना नहीं, झुरमुट की हरीतिमा नहीं, पवन में नए धान्यों की महक नहीं, मकरन्द की मधुरिमा नहीं और स्वशिशु का शीतल स्पर्श नहीं। मैं मरकर भी सतृष्ण याद करती रहूँगी तुम्हारे मन्द स्व की आभा जो जीवन की सारसत्ता को आवाहित करती है।
राजा: अरे, ये करुण स्वर मुझे ढकेल क्यों रहा है उन दिनों की ओर, जो बीत गए हैं कब के। मेरे मुन्ने, तुम क्यों घेर लेते हो मेरा मन अपने प्यार के जाल की चहारदीवारी बाँधकर। हटा लो जरा मेरे दैनिक कार्यों में बाधा डालने वाले अपने हाथों को। अभी पहुँचा मैं इस नये आए शव के पास।
(बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली चमकती है।)
रानी: (हाथ जोड़े ऊपर देखती है) मेरे प्राणनाथ! तुम कहाँ हो? काश आ जाते और एक बार जिसे अपनी गोद में खिलाया है उस लाडले का मुँह देख लेते। “प्यारे जू है जग की यह रीति विदा के समय सब कंठ लगावें।” अब क्या मेरे लिए उचित है कि अपने समय को बरबाद करूँ। मेरी श्वासों के झूले, अब मत झूलो आगे पीछे। तुम आ जाते प्राणेश, सिर्फ आज के लिए, सिर्फ आज के लिए। (कुछ थमकर) आ रहे हैं प्रियतम, अब समीप प्रतिध्वनित हो रही है उनकी पदचाप। उनका संगीत मेरी अन्तरात्मा में गूँज रहा है। लो विश्वामित्र! राजा हरिश्चन्द्र गए, पुत्र रोहिताश्व गया। अब रानी शैव्या गंगा की गोद में लोटेगी। आपका कलेजा अब तो ठंडा हो जाना चाहिए। हरिश्चन्द्र का नाम लेकर निखिल मानवता मृत्युंजय हो जाएगी। अरे ओ मेरे अश्रु! अगाध हृदय समुद्र के अनमोल द्युतिमय मोती, रुको, रुको। तुम्हारा मूल्य आँकने वाला रस पारखी वाम विधाता ने बनाया ही नहीं। मुझे प्रियतम को ढूँढ़ लेने दो। तब फिर बहना, खूब बहना। (रोहित को देखकर) आ मेरे लाल, एक बार फिर तुम्हें भर अंक भेंट लूँ। काष्ट चिता में दूध पिलाने वाले हाथों से आग की लपट बिखेर दूँ। तू भी जल मैं भी जलूँ। अयोध्या की प्रजा, क्षमा करना! सत्य के देवता, क्षमा करना! प्रियतम के सिन्दूर से सजी माँग में पुत्र की जली राख पोतकर अखण्ड पुत्रवती बने रहने का वरदान श्मसान देव से माँग लूँगी। फिर तुम्हें दहकता देख तेरी जलन को अपने कलेजे में धारण कर, गंगा में कूद जाऊँगी (चिता में आग लगाने जा रही है।)
राजा: खबरदार! खबरदार! बिना कफन दिए आग नहीं लगाना (वहाँ पहुँच जाते हैं) शव का वस्त्र उतारकर आधा दे दो देवि! तब क्रिया करो। यह मेरे राजा का हुक्म है। (हाथ फैलाते हैं)
रानी: आँचल फाड़कर लपेटा है इस शव को। चक्रवर्ती राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र सर्पदंश से मृत हो गया है। इसे वस्त्र भी मुहाल नहीं हुआ। मैं भी अर्द्धनग्न, पुत्र भी अर्द्धनग्न। एक चिता को छोड़ देते तो कृपा होती।
(बिजली चमकती जा रही है।)
(रानी राजा को और राजा रानी को पहचान लेते हैं, फिर भी धर्म की दुहाई देते हैं।)
राजा: देवि! सत्य की विजय होती है। इसमें ही सत् चित् आनन्द की त्रिवेणी लहराती है। सनातन जीवन का यही धुव केन्द्र है। तुम्हें भी सत्यमेव जयत के ध्वज को आकाश तक लहराना ही है। छोड़ दो यह विलाप-कलाप। समय की गति निराली है। हम गुलाम हैं। कहीं रहें गुलाम का धर्म निबाहना है। यह समय बड़ा खिलवाड़ी है। आगे और पीछे सब में जो चिरन्तन सत्य है, हमें, तुम्हें उस मर्यादा से डिगना नहीं है। तुम अपना धर्म पालो, हम अपना धर्म।
रानी: प्रिय! मेरे सबकुछ, तुम यहाँ हो, मैं तुम्हीं को खोज रही थी। अब कैसा धर्म, कैसी मर्यादा? तुम्हीं मेरे सब कुछ हो। लीजिए अपना कर। (आँचल फाड़ने जा रही है, राजा लेने को हाथ बढ़ा रहे हैं।)
(तब तक पृथ्वी काँपने लगती है, गंगा की धारा रुक जाती है। धन्य-धन्य की ध्वनि के साथ नेपथ्य में बाजे बजने लगते हैं। त्रिदेव, धर्म, सत्य आदि प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र की जयकार करने लगते हैं।)
धर्म: बस्! बस्! बहुत हो गया, बहुत हो गया। अब त्रैलोक्य को सँभालो अन्यथा महाप्रलय हो जाएगी। मैं ही चाण्डाल बनकर श्मसान में तुम्हारी परीक्षा ले रहा था।
सत्य: राजा हरिश्चन्द्र की जय हो! मैं ही ब्राह्मण वेशधारी उपाध्याय बना था, जहाँ शैव्या और रोहिताश्व को शरण मिली थी।
(विश्वामित्र का प्रवेश)
(हरिश्चन्द्र और शैव्या सभी ऋषि तथा देवों को प्रणाम करते हैं।)
मैंने ही तक्षक को डँसने के लिए भेजा। (जल लेकर रोहित के ऊपर छिड़कते हैं) रोहित, उठ जाओ बेटा!
(रोहित उठकर सबको प्रणाम करता है।)
शिव: काशी नगरी हरिश्चन्द्र के आगमन से गरिमामय हुई। तुम धन्य हो! (पुष्पवर्षा होती है।)
नारायण: हे धर्म, सत्य, सदाचरण के प्रतिमूर्ति! तुम्हारी कीर्ति यावत् चन्द्रदिवाकर अक्षय रहेगी। रथ तैयार है। अयोध्या का राज सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। चलो!(विश्वामित्र हाथ पकड़कर सबको रथ में बैठाते हैं, पुष्प वर्षा होती है, सूत्र-वाक्य गूँजता है)
सत्यमेव जयते। सत्यमेव जयते। सत्यमेव जयते।