शास्त्रों के अनुसार पूजा के समय सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा करने की परंपरा है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की संख्या अलग-अलग बताई गई है, जैसे दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेश की तीन, विष्णु की चार और शिव की आधी प्रदक्षिणा करना चाहिए।- नारद पुराण
किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि- ‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा। ’ अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
*तिलक लगाने के बाद यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाई जाती है।
*श्री गणेश की तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए जिससे गणेशजी भक्त को रिद्ध-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं।
*पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।
*माता दुर्गा मां की एक परिक्रमा की जाती है। माता अपने भक्तों को शक्ति प्रदान करती है।
*भगवान नारायण अर्थात् विष्णु की चार परिक्रमा करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
*एकमात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की सात परिक्रमा करने पर सारी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती हैं।
*प्राय: सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। हालांकि सभी देववृक्षों की परिक्रमा करने का विधान है।
* जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। लिखा गया है कि- ‘ यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्। दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥ '
* काशी ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहां के सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर काशीधाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणा मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं।
* मनु स्मृति में विवाह के समक्ष वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं तो विवाह संपन्न माना जाता है।
* पवित्र धर्मस्थानों- अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खंड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।
किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि- ‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा। ’ अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
*तिलक लगाने के बाद यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाई जाती है।
*श्री गणेश की तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए जिससे गणेशजी भक्त को रिद्ध-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं।
*पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।
*माता दुर्गा मां की एक परिक्रमा की जाती है। माता अपने भक्तों को शक्ति प्रदान करती है।
*भगवान नारायण अर्थात् विष्णु की चार परिक्रमा करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
*एकमात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की सात परिक्रमा करने पर सारी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती हैं।
*प्राय: सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। हालांकि सभी देववृक्षों की परिक्रमा करने का विधान है।
* जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। लिखा गया है कि- ‘ यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्। दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥ '
* काशी ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहां के सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर काशीधाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणा मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं।
* मनु स्मृति में विवाह के समक्ष वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं तो विवाह संपन्न माना जाता है।
* पवित्र धर्मस्थानों- अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खंड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।
Post a Comment