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Friday, November 22, 2019

Mantra Sidh Karne Ka Tarika

जो व्यक्ति मंत्र सिद्ध करना चाहते हैं तो वह जिस स्थान पर जाएं तो उस क्षेत्र के रक्षक देव से प्रार्थना करें कि मैं इस स्थान में इतने समय तक ठहरूंगा उसके लिए आज्ञा दो और किसी प्रकार का मेरे ऊपर उपसर्ग हो, तो उसका निवारण करो।


मंत्र सिद्धि का स्थान ऐसा हो जहां मनुष्यों का आगमन न हो, एकांत स्थान जैसे बगीचों, मैदानों, पहाड़ों की गुफाओं, नदी के किनारे, घने जंगल और तीर्थ आदि। जब मंत्र की साधना हेतु प्रवेश करें तो मन-वचन-कर्म से उस स्थान के यक्ष और रक्षक देव से विनय करके मुख से उच्चारण करें कि हे इस स्थान के रक्षक देव, मैं अपने कार्य की सिद्धि के लिए आपके स्थान में आया हूं। आपका आश्रय लिया है। इतने दिन तक मैं यहां रहूंगा। अत: आपके स्थान में रहने के लिए आज्ञा प्रदान करें। अगर मेरे ऊपर किसी प्रकार का उपद्रव, संकट, भय आदि आए तो उसका भी निवारण करना।


जिस मंत्र की साधना करनी हो पहले विधिपूर्वक जितना हर रोज जप सकें उतना प्रतिदिन जप कर सवा लाख बार जप पूरा कर मंत्र साधना करें। फिर जिस कार्य को करना चाहते हैं 108 बार या 21 बार जैसा मंत्र में लिखा हो- उतनी बार जप करने से कार्य सिद्ध होता है।


मंत्र शुद्ध अवस्था में जपना चाहिए। भोजन भी शुद्ध खाना चाहिए। जिस मंत्र में शब्द के आगे 2 का अंक हो तो उस शब्द का दो बार उच्चारण करना चाहिए। पद्मासन में मंत्र साधन में आसान जप करें। बायां हाथ गोद में रखें एवं दाहिने हाथ से जप करें। अगर मंत्र में बाएं हाथ से जप जपना लिखा हो, तो दाहिना हाथ गोद में रखें।


मंत्र जपने बैठें तो सर्वप्रथम रक्षा मंत्र जप कर अपनी रक्षा करें, ताकि आप में कोई उपद्रव, विघ्न न हो सके। अगर मंत्र पूर्ण होने पर देवी-देवता, सांप, बिच्छू, रीछ, भेडिय़ा आदि बन कर डराने आएं तो रक्षा मंत्र जपने से मंत्र साधक के अंग को नहीं छू सकेगा। सामने ही डराता रहेगा। डरें नहीं। प्राण जाने की नौबत आ जाए तो भी नहीं डरे तो मंत्र सिद्ध होकर मनोकामना पूर्ण होगी। बिना रक्षा मंत्र के जाप करने नहीं बैठे। मंत्र साधना करते वक्त सांप वगैरह से डर जाए या मंत्र को बीच में छोड़ दे तो मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता है।


मंत्र साधना में धोती, दुपट्टा सफेद रंग का हो या मंत्र में जिस रंग का लिखा हो अच्छा लेना चाहिए।


बिछाने के लिए आसन भी सफेद, पीला या लाल हो या जैसा मंत्र में लिखा हो वह बिछाएं।


मंत्र में माला जिस रंग की लिखी हो तो धोती, दुपट्टा और आसन भी उसी रंग का हो तो उत्तम है, नहीं तो मंत्र में लिखा हो जैसा करें।


मंत्र की साधना के लिए गर्मी का समय ठीक रहता है ताकि सर्दी नहीं लगे। दो जोड़ी कपड़े रखें ताकि मल-मूत्र हेतु जाएं तो दूसरे वस्त्र पहनें। अपवित्र होते ही स्नान करें या बदन पोंछ लें। वस्त्र अपवित्र न हों। मंत्र की सिद्धि जितने दिन करें ब्रह्मचर्य का पालन करें। अपना व्यवसाय भी न करें। केवल भोजन करें जो किसी साथी से मंत्र साधना स्थल पर मंगा लिया करें। अगर भूखे रहने की शक्ति मंत्र साधना काल तक हो, तो श्रेष्ठ है।


मंत्र के अक्षरों का शुुद्धता से धीरे-धीरे उच्चारण करें। अक्षरों को शुद्ध बोलें। मंत्र हेतु दीपक लिखा हो, तो दीपक जलता रहे। धूप लिखी हो तो धूप सामने रखें। जिस उंगली, अंगूठे से जाप करना लिखा हो उससे ही जाप करें। मंत्र साधना जन कल्याण के हितार्थ की जाती है। अपने लोभ, लालच, दूसरों के नुक्सान हेतु नहीं अन्यथा परिणाम विपरीत होते हैं। अनुभवी मंत्र साधक से परामर्श करके ही मंत्र साधना करनी चाहिए।

Wednesday, February 15, 2017

Maha Kaalabhairavam – Yam Yam Yam Yaksha Roopam

Aum

Yam Yam Yam Yaksha Roopam Dasha Dishi Viditam Bhoomi Kampaayamaanam.
Sam Sam Samhaara Moortim Shira Mukuta Jataa Shekharam Chandra Bimbam.
Dam Dam Dam Deergha Kaayam Vikrita Nakha Mukham Jordhvaromam Karaalam.
Pam Pam Pam Paap Naasham Prannmata Satatam Bhairavam Shetrapaalam.

RaM RaM RaM rakta varnam, katikatitatanum Teekshna Dhamshtra Karalam!
Gham Gham Gham Ghosha Ghosham GHa GHa Gha Gha Ghatitam Gharjharam Ghoora naadham!
Kam Kam Kam Kaala Paasam Dhruka Dhruka Dhrudhitham Jwaalitham Kaamadhaaham!
Tam Tam Tam divya Deham, PraNAMatha sathatham, BHAIRAVAM KSHETRA PAALAM!!!

Lam Lam Lam Lam Vadanatham la la la la Lalitham Dheergha Jihvaah KaraaLam!
Dhoom Dhoom Dhoom Dhoomra Varnam Sputa vikata mukham Bhaskaram Bheemaroopam,
Rum Rum Rum Roondamaalam, ravitha mahigatham thaamra netram karaalam!
Nam Nam Nam NagnaBhoosham , PraNA Matha sathatham, BHAIRAVAM KSHEThRA PAALAM!!!

Vam Vam vaayuveham natajana sadayam Brahma saaram paramtham
Kham Kham khadga hastam tribhuvana vilayam bhaskaram bheema roopam
Cham Cham chalitvaa chala chala chalitha chaalitam bhoomi chakram
Mam Mam maayi roopam pranamata satatam bhairavam kshethra paalam

Sham Sham Sham Shankha Hastam, Sasi kara dhavalam, Mooksha Sampoorna Tejam!
Mam Mam Mam Mam Mahaantam, Kula macula kulam Mantra Guptam Sunityam!
Yam Yam Yam Bhootanadham, Kili Kili Kalitham Baalakeli Pradhanam,
Aam Aam Aam Aantariksham , PraNA MATAM satatam, BHAIRAVAM KSHETRA PAALAM!!!

Kham Kham Kham Khadga Bhedam, Visha Mamruta Mayam Kaala Kaalam Karalam!
Ksham Ksham Ksham Kshepra Vegam, Daha Daha Dhanam, Tapta Sandeepya Maanam,
Houm Houm Houm Kaara Nadam, Prakatita Gahanam Garjitai Bhoomi Kampam,
Vam Vam Vam Vaala Leelam, PraNA MATAM satatam, BHAIRAVAM KSHETRA PAALAM!!!

Sam Sam Sam Siddhi Yogam, Sakala guna makham, Deva Devam Prasannam,
Pam Pam Pam Padmanabham, HariHara Mayanam Chandra SuryaAgni Nethram,
Aim Aim Aim AIshwarya naadham, Sathatha bhaya haram,Poorvadeva Swaroopam,
Roum Roum Roum Roudra Roopam, PraNamatha  sathatham, BHAIRAVAM KSHETRA PAALAM!!!

Ham Ham Ham Hamsayaanam, Hapitakala Hakam, MuktaYogaatta haasam,
Dham Dham Dham Netra roopam, Siramukhuta Jataabandha BandhAagra Hastam!
Tam Tam Taankaa nadham, Trida salata la tam, Kaama Garvaapa Haram,
Bhrum Bhrum Bhrum BHootanadham, PraNA MATAM satatam, BHAIRAVAM KSHETRA PAALAM!!!

Friday, September 18, 2015

Nal - Damyanti ( नल दमयंती )

निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा थे। बहुत सुन्दर और गुणवान थे। वे सभी तरह की अस्त्र विद्या में भी बहुत निपुण थे। उन्हें जूआ खेलने का भी थोड़ा शोक था। उन्हीं दिनों विदभग् देश में भीमक नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुण सम्पन्न थे। उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके उनके वरदान से चार संतान प्राप्त की थी- तीन पुत्र और एक कन्या । पुत्रों के नाम थे दम,दान्त व दमन पुत्री का नाम था दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवन्ती थी। बड़ी-बड़ी आंखे थी। उस समय देवताओं और यक्षों मे कोई भी कन्या इतनी रूपवती नहीं थी।

उन दिनों कितने ही लोग उस देश में आते और राजा नल से दमयन्ती के गुणों का बखान करते। एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंसे को पकड़ लिया। हंस ने कहा आप मुझे छोड़ दीजिए तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको जरूर वर लेगी।

वे सब हंस उड़कर राजकुमारी दमयन्ती के पास गए। दमयन्ती उन्हें देखकर बहुत खुश हुई। हंसों को पकडऩे के लिए दौडऩे लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़कर दौड़ती। वही हंस बोल उठता- रानी दमयन्ती निषध देश का एक नल नाम का राजा है। वह राजा बहुत सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुंदर और कोई नहीं है। वह मानो साक्षात कामदेव का स्वरूप है। यदि तुम उसकी पत्नी बन जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जाए।

वह अश्विनी कुमार के समानसुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुंदर और कोई नहीं है। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों को भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत सुंदर है। दमयन्ती ने कहा- हंस तुम नल से भी ऐसी ही बात कहना। हंस ने लौटकर राजा नल को उनका संदेश दिया। दमयन्ती हंस के मुंह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी।

उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गई कि वह रात दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वे कमजोर सी दिखने लगी। सहेलियों ने दमयन्ती के मन के भाव जानकर राजा से निवेदन किया कि आपकी पुत्री अस्वस्थ्य हो गई हैं। राजा ने बहुत विचार किया और अंत में इस निर्णय पर पहुंचा कि मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गई है।

दमयन्ती के पिता ने सभी देशों के राजा को स्वयंवर के लिए निमंत्रण पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया। सभी देश के राजा हाथी व घोड़ों के रथों से वहां पहुंचने लगे। नारद और पर्वत से सभी देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र और सभी लोकपाल भी अपने वाहनों सहित रवाना हुए। राजा नल को भी संदेश मिला तो वे भी दमयन्ती से स्वयंवर के लिए वहां पहुंचे। नल के रूप को देखकर इंद्र ने रास्ते में अपने विमान को खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर कहा कि राजा नल आप बहुत सत्यव्रती हैं।

आप हम लोगों के दूत बन जाइए। नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि करूंगा। फिर पूछा कि आप कौन है तो इन्द्र ने कहा हम लोग देवता है। हम लोग दमयन्ती के लिए यहां आएं हैं। आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइए और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्रि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहो उस देवता को अपना पति स्वीकार कर लो।

नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि देवराज वहां आप लोगों का और मेरे जाने का एक ही प्रायोजन है। इसलिए आप मुझे वहां दूत बनाकर भेजे यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो वह भला उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है? आप लोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिए। देवताओं ने कहा नल तुम पहले हम लोगों से प्रतिज्ञा कर चुके हो कि मैं तुम्हारा काम करूंगा। अब प्रतिज्ञा मत तोड़ो। अविलम्ब वहां चले जाओ। नल ने कहा- राजमहल में निरंतर कड़ा पहरा रहता है मैं कैसे जा सकुंगा।

राजकुमारी दमयन्ती ने कही अपने दिल की बात

इन्द्र की आज्ञा से नल ने राजमहल में बिना रोक टोक के प्रवेश किया। दमयन्ती और उसकी सहेलियां भी उसे देखकर मुग्ध हो गयी और लज्जित होकर कुछ बोल न सकी। तुम देखने में बड़े सुंदर और निर्दोष जान पड़ते हो। पहले यहां आते समय द्वारपालों ने तुम्हे देखा क्यों नहीं? उनसे तनिक भी चूक हो जाने पर मेरे पिता बहुत कड़ा दण्ड देते हैं। नल ने कहा- मैं नल हूं। लोकपालों का दूत बनकर तुम्हारे पास आया हूं।

सुन्दरी ये देवता तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं। तुम इनमें से किसी एक देवता के साथ विवाह कर लो। यही संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूं। उन देवताओं के प्रभाव से जब मैंने तुम्हारे महल में प्रवेश किया तो मुझे कोई देख नहीं पाया। मैंने तुमसे देवताओं का संदेश कह दिया है अब जो कहना है कह दो। अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।

दमयन्ती ने बड़ी श्रृद्धा के साथ देवताओं को प्रणाम करके मन्द मुस्कान के साथ कहा स्वामी मैं तो आपको ही अपना सर्वस्व मानकर अपने आप को आपके चरणों में सौंपना चाहती हूं। जिस दिन से मैंने हंसों की बात सुनी तभी से मैं आपके लिए व्याकुल हूं। आपके लिए ही मैंने राजाओं की भीड़ इकट्ठी की है। यदि आप मुझ दासी की प्रार्थना अस्वीकार कर देंगे तो मैं जहर खाकर मर जाऊंगी।

दमयन्ती की खुशी का ठिकाना ना रहा जब  राजा नल ने दमयन्ती से कहा- जब बड़े-बड़े लोकपाल तुमसे शादी करना चाहते हैं फिर तुम मुझ मनुष्य से क्यों शादी करना चाहती हो। मैं तो उन देवताओं के चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूं। तुम अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं का अप्रिय करने पर इंसान की मृत्यु हो सकती है। तुम मेरी रक्षा करो और उनको वरण कर लो। नल की बात सुनकर दमयन्ती घबरा गई। उसकी आंखों में आंसु छलक आए। उस समय दमयन्ती का शरीर कांप रहा था हाथ जुड़े हुए थे। उसने कहा मैं आपको वचन देती हूं कि मैं आपको ही पति के रूप में वरण करूंगी।

राजा नल ने कहा-अच्छा तब तो तुम ऐसा ही करो परंतु यह बतलाओ कि मैं यहां उनका दूत बनकर आया हूं। अगर इस समय मैं अपने स्वार्थ की बात करने लगूं तो यह कितनी बुरी बात है। मैं तो अपना स्वार्थ तभी बना सकता हूं जब वह धर्म के विरूद्ध ना हो। तब दमयन्ती ने गदगद कण्ठ से कहा राजा इसके लिए एक निर्दोष उपाय है। उसके अनुसार काम करने पर आपको दोष नहीं लगेगा।

वह यह उपाय है कि आप सभी लोकपालों के साथ स्वयंवर मंडप में आए। मैं आपको वर लुंगी। तब आपको दोष भी नहीं लगेगा। देवताओं के पूछने पर उन्होंने कहा मैं दमयन्ती के पास गया तो मुझे देखकर वे और उनकी सखियां सभी मुझ पर मोहित हो गई और आप लोगों के प्रस्ताव को उनके सामने रखने के बाद भी वे मुझे ही वरण करने पर तुली हैं।

दमयन्ती ने कैसे पहचाना असली राजा नल को?

स्वयंवर की घड़ी आई। राजा भीमक ने सभी को बुलवाया। शुभ मुहूर्त में स्वयंवर रखा। सब राजा अपने-अपने निवास स्थान से आकर स्वयंवर में यथास्थान बैठ गए। तभी दमयन्ती वहां आई। सभी राजाओं का परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एक को देखकर आगे बढऩे दिया जाने लगा। आगे एक ही स्थान पर नल के समान ही वेषभुषा वाले पांच राजकुमार खड़े दिखाई दिए। यह देखकर दमयन्ती को संदेह हो गया, वह जिसकी और देखती उन्हें सिर्फ राजा नल ही दिखाई देते। इसलिए विचार करने लगी कि मैं देवताओं को कैसे पहचानूं और ये राजा है यह कैसे जानूं? उसे बड़ा दुख हुआ। अन्त में दमयन्ती ने यही निश्चय किया कि देवताओं की शरण में जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी। देवताओं हंसों के मुंह से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पतिरूपण से वरण कर लिया है।

मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत शुरू कर लिया है। आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे में राजा नल को पहचान लूं। देवताओं ने दमयन्ती की बात सुनकर उसके दृढ़-निश्चय को देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दी जिससे वह देवता और मनुष्य में अंतर कर सके। दमयन्ती ने देखा कि शरीर पर पसीना नहीं है। पलके गिरती नहीं हैं। माला कुम्हलाई नहीं है। शरीर स्थिर है। शरीर पर धूल व पसीना भी नहीं है। दमयन्ती ने इन लक्षणों को देखकर ही दमयन्ती ने राजा नल को पहचान लिया।

कलयुग ने किया नल के शरीर में प्रवेश

जिस समय दमयंती के स्वयंवर से लौटकर इन्द्र व अन्य लोकपाल अपने-अपने लोकों को जा रहे थे। उस समय उनकी मार्ग में ही कलयुग और द्वापर से भेंट हो गई। इन्द्र ने पूछा कलयुग कहा जा रहे हो? कलियुग ने कहा-मैं दमयन्ती के स्वयंवर में उससे विवाह करने के लिए जा रहा हूं। इन्द्र ने कहा अरे स्वयंवर तो कब का पूरा हो गया। दमयन्ती ने राजा नल का वरण कर लिया है।

हम लोग देखते ही रह गए। कलयुग ने क्रोध में भरकर कहा - तब तो यह अनर्थ हो गया। उसने देवताओं की उपेक्षा करके मनुष्य को अपनाया, इसलिए उसको दण्ड देना चाहिए। देवताओं ने कहा- दमयन्ती ने हमारी आज्ञा प्राप्त करके ही नल को वरण किया है। वास्तव में नल सर्वगुण सम्पन्न और उसके योग्य है। वे समस्त धर्मों के जानकार हैं।

उन्होंने इतिहास पुराणों सहित वेदों का भी अध्ययन किया है। उनको शाप देना तो नरक में धधकती आग में गिरने के समान है। अब कलयुग ने द्वापर से कहा मैं अपने क्रोध को शान्त नहीं कर सकता। इसलिए मैं नल के शरीर में निवास करूंगा। मैं उसे राज्यच्युत कर दूंगा। तब वह दमयन्ती के साथ नहीं रह सकेगा। इसलिए तुम भी जूए के पासों में प्रवेश करके मेरी सहायता करना।

द्वापर ने उसकी बात स्वीकार ली। द्वापर और कलयुग दोनों ही नल की राजधानी में आ बसे। बारह वर्ष तक वे इस बात की प्रतीक्षा में रहे कि नल में कोई दोष दिख जाए। एक दिन राजा नल संध्या के समय लघुशंका से निवृत होकर पैर धोए बिना ही आचमन करके संध्यावंदन करने बैठ गए। यह अपवित्र अवस्था देखकर कलियुग उनके शरीर में प्रवेश कर गया।

जूए में राजा नल सबकुछ हार गए 

कलयुग दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर बनकर उसकी बात स्वीकार करके वह पुष्कर के पास गया और बोला तुम नल के साथ जुआं खेलो मेरी सहायता करो। जूए में जीतकर निषध राज का राज्य प्राप्त कर लो। पुष्कर उसकी बात स्वीकार करके नल के के पास गया। द्वापर भी पासे का रूप धारण करके उसके साथ चला। जब पुष्कर ने राजा नल को जूआ खेलने का आग्रह किया। तब राजा नल दमयन्ती के सामने अपने भाई की बार - बार की ललकार सह ना सके। उन्होंने पासे खेलने का निश्चय किया।

उस समय नल के शरीर में कलयुग घुसा हुआ था, इसीलिए नल जो कुछ भी जूए में लगाते हार जाते। प्रजा और मंत्रियों ने राजा को रोकना चाहा लेकिन जब वे नहीं माने तो मंत्रियों ने द्वारपाल को रानी दमयंती तक राजा को रोकने का संदेश पहुंचवाया। तब रानी नल दमयन्ती को बोली आपकी पूरी प्रजा आपके दुख के कारण अचेत हुई जा रही है। इतना कहकर दमयंती भी रोने लगी। लेकिन राजा नल कलयुग के प्रभाव में थे।

इसीलिए जो पासे फेंकते वही उनके प्रतिकुल पड़ते। जब दमयंती ने यह सब देखा तो उसने धाय को बुलवाया और उसके द्वारा राजा नल के सारथि वाष्र्णेय को बुलवाया। उन्होंने ने उससे कहा सारथि तुम जानते हो कि महाराज बहुत संकट में है। अब यह बात तुम से छिपी नहीं है। तुम रथ जोड़ लो और मेरे बच्चों को रथ में बैठाकर कुंडिनगर ले जाओ। उसके बाद पुष्कर ने राजा नल का सारा धन ले लिया और बोला तुम्हारे पास दावं पर लगाने के लिए और कुछ है या नहीं। यदि तुम दमयंती को दावं पर लगाने के लायक समझो तो उसे लगा दो।

क्योंकि पत्नी का यही धर्म है

एक दिन राजा नल ने देखा कि बहुत से पक्षी उनके पास ही बैठे है। उनके पंख सोने के समान दमक रहे हैं। नल ने सोचा कि इनकी पांख से कुछ धन मिलेगा। ऐसा सोचकर उन्हें पकडऩे के लिए नल ने उन पर अपना पहनने का वस्त्र डाल दिया। पक्षी उनका वस्त्र लेकर उड़ गए। अब नल नंगे होकर बड़ी दीनता के साथ मुंह नीचे करके खड़ा हो गए।

पक्षियों ने कहा तु नगर से एक वस्त्र पहनकर निकला था। उसे देखकर हमें बड़ा दुख हुआ था ले अब हम तेरे शरीर का वस्त्र लिए जा रहे है। हम पक्षी नहीं जूए के पासे हैं। नल ने दमयन्ती से पासे की बात कह दी। तुम देख रही हो, यहां बहुत से रास्ते है। एक अवन्ती की ओर जाता है। दूसरा पर्वत होकर दक्षिण देश को। सामने विन्ध्याचल पर्वत है। यह पयोष्णी नदी समुद्र में मिलती है। सामने का रास्ता विदर्भ देश को जाता है। यह कौसल देश का मार्ग है।

इस प्रकार राजा नल दुख और शोक से भरकर बड़ी ही सावधानी के साथ दमयन्ती को भिन्न-भिन्न आश्रम मार्ग बताने लगे। दमयन्ती की आंखें आंसु से भर गई। दमयन्ती ने राजा नल से कहा क्या आपको लगता है कि मैं आपको छोड़कर अकेली कहीं जा सकती हूं। मैं आपके साथ रहकर आपके दुख को दूर करूंगी। दुख के अवसरो पर पत्नी पुरुष के लिए औषधी के समान है। वह धैर्य देकर पति के दुख को कम करती है।

राजा नल ने क्यों किया दमयंती को छोडऩे का फैसला?

उस समय नल के शरीर पर वस्त्र नहीं था। धरती पर बिछाने के लिए एक चटाई भी नहीं थी। शरीर पर धूल से लथपथ हो रहा था। भूख-प्यास से परेशान राजा नल जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती भी उनके साथ ये सारे दुख झेल रही थी। राजा नल भी जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती के सो जाने पर राजा नल की नींद टूटी। सच्ची बात तो यह थी कि वे दुख और शोक की के कारण सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे। वे सोचने लगे कि दमयंती मुझ से बड़ा प्रेम करती है। प्रेम के कारण ही उसे इतना दुख झेलना पड़ेगा। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊं तो संभव है कि इसे सुख भी मिल जाए। अन्त में राजा नल ने यही निश्चय कि इसे सुख भी मिल जाए।

दमयन्ती सच्ची पतिव्रता है। इसके सतीत्व को कोई भंग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्यागने का निश्चय करके और सतीत्व की ओर से निश्चिन्त होकर राजा नल ने यह विचार किया कि मैं नंगा हूं और दमयन्ती के शरीर पर भी केवल एक वस्त्र है। फिर भी इसके वस्त्रों में से आधा फाड़ लेना ही श्रेयस्कर है लेकिन फांडू़ कैसे? शायद यह जाग जाए? राजा नल ने यह सोचकर दमयंती को धीरे से उठाकर उसके शरीर का आधा वस्त्र फाड़कर शरीर ढक लिया। दमयंती नींद में थी। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़े। थोड़ी देर बाद वे शांत हुए और वे फिर धर्मशाला लौट आए।

मगर ने रानी को निगलने के लिए जकड़ लिया

थोड़ी देर बाद जब राजा नल का हृदय शांत हुआ ,तब वे फिर धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे और सोचने लगे कि अब तक दमयन्ती परदे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे रहेगी? मैं तुम्हे छोड़कर जा रहा हूं सभी देवता तुम्हारी रक्षा करें। उस समय राजा नल का दिल दुख के मारे टुकड़े- टुकड़े हुआ जा रहा था।

शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसीलिए वे अपनी पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए। जब दमयंती की नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। यह देखकर वे चौंक गई और राजा नल को पुकारने लगी।

जब दमयंती को राजा नल बहुत देर तक नहीं दिखाई पड़ें तो वे विलाप करने लगी। वे भटकती हुई जंगल के बीच जा पहुंची। वहां अजगर दमयंती को निगलने लगा। दमयंती मदद के लिए चिल्लाने लगी तो एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर दमयंती को मगर निगल रहा है। अपने तेज शस्त्र से उसने मगर का मुंह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन करवाया।

दमयन्ती ने क्यों दिया मुसीबत से बचाने वाले को ही शाप?

दमयन्ती जब कुछ शांत हुई। व्याध ने पूछा सुन्दरी तुम कौन हो? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से तुम यहां आई हो? दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध मोहित हो गया। वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने बस में करने की कोशिश करने लगा। दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई। दमयंती ने उसके बलात्कार करने की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा लेकिन जब वह किसी प्रकार नहीं माना तो उसने शाप दे दिया कि मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े। दमयंती के इतना कहते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची।

राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।

फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

दमयन्ती ने मुश्किल समय में भी रख दी शर्त 

दमयंती रोती हुई एक अशोक के वृक्ष के पास पहुंचकर बोली तू मेरा शोक मिटा दे। शोक रहित अशोक तू मेरा शोक मिटा दे। क्या कहीं तूने राजा नल को शोक रहित देखा है। तू अपने शोकनाशक नाम को सार्थक कर।दमयन्ती ने अशोक की परिक्रमा की और वह आगे बढ़ी। उसके बाद आगे बड़ी तो बहुत दूर निकल गई। वहां उसने देखा कि हाथी घोड़ों और रथों के साथ व्यापारियों का एक झुंड आगे बढ़ रहा है। व्यापारियों के प्रधान से बातचीत करके दमयंती को जब यह पता चला कि वे सभी चेदीदेश जा रहे हैं तो वह भी उनके साथ हो गई। कई दिनों तक चलने के बाद वे व्यापारी एक भयंकर वन में पहुंचे। वहा एक बहुत सुंदर सरोवर था। लंबी यात्रा के कारण वे लोग थक चुके थे। इसलिए उन लोगों ने वहीं पड़ाव डाल दिया। रात के समय जंगली हाथियों का झुंड आया। आवाज सुनकर दमयंती की नींद टूट गई। वह इस मांसाहार के दृश्य को देखकर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? वे सभी व्यापारी मर गए वो वहां से भाग निकली और दमयंती भागकर उन ब्राह्मणों के पास पहुंची और उनके साथ चलने लगी शाम के समय वह राजा सुबाहु के यहां जा पहुंची। वहां उसे सब बावली समझ रहे थे। उसे बच्चे परेशान कर रहे थे।

उस समय राज माता महल के बाहर खिड़की से देख रही थी उन्होंने अपनी दासी से कहा देखो तो वह स्त्री बहुत दुखी मालुम होती है। तुम जाओ और मेरे पास ले आओ। दासी दमयंती को रानी के पास ले गई। रानी ने दमयंती स पूछा तुम्हे डर नहीं लगता ऐसे घुमते हुए। तब दमयंती ने बोला में एक पतिव्रता स्त्री हूं। मैं हूं तो कुलीन पर दासी का काम करती हूं। तब रानी ने बोला ठीक है तुम महल में ही रह जाओ। तब दमयंती कहती है कि मैं यहां रह तो जाऊंगी पर मेरी तीन शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी, पैर नहीं धोऊंगी और परपुरुष से बात नहीं करुंगी। रानी ने कहा ठीक है हमें आपकी शर्ते मंजुर है।

जैसे ही राजा ने कहा दश सांप ने डंस दिया

जिस समय राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में आग लग रही थी। तभी नल को आवाज आई। राजा नल शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ। नागराज कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था। उसने नल से कहा- राजन मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूं। मैंने नारद मुनि को धोखा दिया था। उन्होंने शाप दिया कि जब तक राजा नल तुम्हे न उठावे, तब तक यहीं पड़े रहना। उनके उठाने पर तू शाप से छूट जाएगा। उनके शाप के कारण मैं यहां से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकता। तुम इस शाप से मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हे हित की बात बताऊंगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊंगा। मेरे भार से डरो मत मैं अभी हल्का हो जाता हूं वह अंगूठे के बराबर हो गया। नल उसे उठाकर दावानल से बाहर ले आए। कार्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे जमीन पर मत डालो। कुछ कदम गिनकर चलो। राजा नल ने ज्यो ही पृथ्वी पर दसवां कदम चला और उन्होंने कहा दश तो ही कर्कोटक ने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई बोले दश तभी वह डंसता था।

आश्चर्य चकित नल से उसने कहा महाराज तुम्हे कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने डस के तुम्हारा रूप बदल दिया है। कलियुग ने तुम्हे बहुत दुख दिया है। अब मेरे विष से वह तुम्हारे शरीर में बहुत दुखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हे हिंसक पशु-पक्षी शत्रु का कोई भय नहीं रहेगा। अब तुम पर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में हमेशा तुम्हारी जीत होगी।

राजा बन गया सारथी

यह कहकर कर्कोटक ने दो दिव्य वस्त्र दिए और वह अंर्तध्यान हो गया। राजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गया। उन्होंने वहां राजदरबार में निवेदन किया कि मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ों को हांकने और उन्हें तरह-तरह की चालें सिखाने का काम करता हूं। घोड़ो की विद्या मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर कोई नहीं है। रसोई बनाने में भी में बहुत चतुर हूं, हस्तकौशल के सभी काम और दूसरे कठिन काम करने की चेष्ठा करूंगा।

आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिए। उसकी सारी बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने कहा बाहुक मैं सारा काम तुम्हें सौंपता हूं। लेकिन मैं शीघ्रगामी सवारी को विशेष पसंद करता हूं। तुम्हे हर महीने सोने की दस हजार मुहरें मिला करेंगी। लेकिन तुम कुछ ऐसा करो कि मेरे घोड़ों कि चाल तेज हो जाए। इसके अलावा तुम्हारे साथ वाष्र्णेय और जीवल हमेशा उपस्थित रहेंगें।

राजा नल रोज दमयन्ती को याद करते और दुखी होते कि दमयन्ती भूख-प्यास से परेशान ना जाने किस स्थिति में होगी। इसी तरह राजा नल ने दमयंती के बारे में सोचते हुए कई दिन बिता दिए। ऋतुपर्ण के पास रहते हुए उन्हें कोई ना पहचान सका। जब राजा विदर्भ को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल और पुत्री राज पाठ विहिन होकर वन में चले गए हैं।

राजमाता ने कैसे पहचाना रानी को?

तब उन्होंने सुदेव नाम के एक ब्राह्मण को नल-दमयंती का पता लगाने के लिए चेदिनरेश के राज्य में भेजा। उसने एक दिन राज महल में दमयंती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पुण्याहवाचन हो रहा था। दमयंती- सुनन्दा एक साथ बैठकर ही वह कार्यक्रम देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयंती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीमक नन्दिनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था। वैसा अब भी देख रहा हूं। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देख लेने से मेरी पुरी यात्रा सफल हो गई। सुदेव दमयंती के पास गया और उससे बोला दमयंती मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव हूं। मैं तुम्हारी भाई की आज्ञा से तुम्हे ढ़ूढने यहां आया हूं। दमयंती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते ही पूछते रो पड़ी।

सुनन्दा दमयंती को रोता देख घबरा गई। उसने अपनी माता के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई। राज माता तुरंत अपने महल से बाहर निकल कर आयी। ब्राह्मण के पास जाकर पूछने लगी महाराज ये किसकी पत्नी है? किसकी पुत्री है? अपने घर वालों से कैसे बिछुड़ गए? तब सुदेव ने उनका पूरा परिचय उसे दिया। सुनन्दा ने अपने हाथों से दमयंती का ललाट धो दिया। जिससे उसकी भौहों के बीच का लाल चिन्ह चन्द्रमा के समान प्रकट हो गया। उसके ललाट का वह तिल देखकर सुनन्दा व राजमाता दोनों ही रो पड़े। राजमाता ने कहा मैंने इस तिल को देखकर पहचान लिया कि तुम मेरी बहन की पुत्री हो। उसके बाद दमयंती अपने पिता के घर चली गई।

तब खत्म हुई रानी की खोज

अपने पिता के घर एक दिन विश्राम करके दमयंती अपनी माता से कहा कि मां मैं आपसे सच कहती हूं। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो आप मेरे पतिदेव को ढूंढवा दीजिए। रानी ने उनकी बात सुनकर नल को ढूंढवाने के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया। ब्राह्मणों से दमयंती ने कहा आप लोग जहां भी जाए वहां भीड़ में जाकर यह कहे कि मेरे प्यारे छलिया, तुम मेरी साड़ी में से आधी फाड़कर अपनी दासी को उसी अवस्था में आधी साड़ी में आपका इंतजार कर रही है। मेरी दशा का वर्णन कर दीजिएगा और ऐसी बात कहिएगा।

जिससे वे प्रसन्न हो और मुझ पर कृपा करे। बहुत दिनों के बाद एक ब्राह्मण वापस आया। उसने दमयंती से कहा मैंने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर भरी सभा में आपकी बात दोहराई तो किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। जब मैं चलने लगा तब बाहुक नाम के सारथि ने मुझे एकान्त में बुलाया उसके हाथ छोटे व शरीर कुरूप है। वह लम्बी सांस लेकर रोता हुआ मुझसे कहने लगा।

उच्च कुल की स्त्रियों के पति उन्हें छोड़ भी देते हैं तो भी वे अपने शील की रक्षा करती हैं। त्याग करने वाला पुरुष विपत्ति के कारण दुखी और अचेत हो रहा था। इसीलिए उस पर क्रोध करना उचित नहीं है। लेकिन वह उस समय बहुत परेशान था।जब वह अपनी प्राणरक्षा के लिए जीविका चाह रहा था। तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गए। जब ब्राह्मण ने यह बात बताई तो दमयंती समझ गई कि वे राजा नल ही हैं।

इसलिए रानी ने फिर से रचाया स्वयंवर..

ब्राह्मण की बात सुनकर दमयंती की आंखों में आंसु भर आए। उसने अपनी माता को सारी बात बताई। तब उन्होंने कहा आप यह बात अब अपने पिताजी से ना कहे। मैं सुदैव ब्राह्मण को इस काम के लिए नियुक्त करती हूं। तब दमयंती ने सुदेव से कहा- ब्राह्मण देवता आप जल्दी से जल्दी अयोध्या नगरी पहुंचे। राजा ऋतुपर्ण से यह बात कहिए कि दमयंती ने फिर से स्वेच्छानुसार पति का चुनाव करना चाहती है।

बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवर की तिथि कल ही है। इसलिए यदि आप पहुंच सकें तो वहां जाइए। नल के जीने अथवा मरने का किसी को पता नहीं है, इसलिए वह इसीलिए कल वे सूर्योदय पूर्व ही पति वरण करेंगी। दमयंती की बात सुनकर सुदेव अयोध्या गए और उन्होंने राजा ऋतुपर्ण से सब बातें कह दी। सुदेव की बातें सुनाकर बाहुक को बुलाया और कहा बाहुक कल दमयंती का स्वयंवर है और हमें जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना है। यदि तुम मुझे जल्दी वहाँ  पहुंच जाना संभव समझो तभी मैं वहां जाऊंगा।

ऋतुपर्ण की बात सुनकर नल का कलेजा फटने लगा। सोचा कि दमयंती ने दुखी और अचेत होकर ही ऐसा किया होगा। संभव है वह ऐसा करना चाहती हो। नल ने शीघ्रगामी रथ में चार श्रेष्ठ घोड़े जोत लिए। राजा ऋतुपर्ण रथ पर सवार हो गए। रास्ते में ऋतुपर्ण ने उसे पासें पर वशीकरण की विद्या सिखाई क्योंकि उसे घोड़ों की विद्या सीखने का लालच था। जिस समय राजा नल ने यह विद्या सीखी उसी समय कलियुग राजा नल के शरीर से बाहर आ गया।

रानी ने राजा को पहचानने के लिए क्या किया?

कलियुग ने नल का पीछा छोड़ दिया था। लेकिन अभी उनका रूप नहीं बदला था। उन्होंने अपने रथ को जोर से हांका और शाम होते-होते वे विदर्भ देश में पहुंचे। राजा भीमक के पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्ण को अपने यहां बुला लिया ऋतुपर्ण के रथ की गुंज से दिशाएं गुंज उठी। दमयंती रथ की घरघराहट से समझ गई कि जरूर इसको हांकने वाले मेरे पति देव हैं। यदि आज वे मेरे पास नहीं आएंगे तो मैं आग में कुद जाऊंगी।

उसके बाद अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण जब राजा भीमक के दरबार में पहुंचे तो उनका बहुत आदर सत्कार हुआ। भीमक को इस बात का बिल्कुल पता नहीं था कि वे स्वयंवर का निमंत्रण पाकर यहां आए हैं। जब ऋतुपर्ण ने स्वयंवर की कोई तैयारी नहीं देखी तो उन्होंने स्वयंवर की बात दबा दी और कहा मैं तो सिर्फ आपको प्रणाम करने चला आया। भीमक सोचने लगे कि सौ-योजन से अधिक दूर कोई प्रणाम कहने तो नहीं आ सकता। लेकिन वे यह सोच छोड़कर भीमक के सत्कार में लग गए। बाहुक वाष्र्णेय के साथ अश्वशाला में ठहरकर घोड़ो की सेवा में लग गया। दमयंती आकुल हो गई कि रथ कि ध्वनि तो सुनाई दे रही है पर कहीं भी

मेरे पति के दर्शन नहीं हो रहे। हो ना हो वाष्र्णेय ने उनसे रथ विद्या सीख ली होगी। तब उसने अपनी दासी से कहा हे दासी तु जा और इस बात का पता लगा कि यह कुरूप पुरुष कौन है? संभव है कि यही हमारे पतिदेव हों। मैंने ब्राह्मणों द्वारा जो संदेश भेजा था। वही उसे बतलाना और उसका उत्तर मुझसे कहना। तब दासी ने बाहुक से जाकर पूछा राजा नल कहा है क्या तुम उन्हें जानते हो या तुम्हारा सारथि वाष्र्णेय जानता है? बाहुक ने कहा मुझे उसके संबंध में कुछ भी मालुम नहीं है सिर्फ इतना ही पता है कि इस समय नल का रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो दमयंती या स्वयं वे ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयंती क्योंकि वे अपने गुप्त चिन्हों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते हैं।

इस तरह हुआ अमर प्रेम कहानी का सुखद अंत

अब दमयंती की आशंका और बढ़ गई और दृढ़ होने लगी कि यही राजा नल है। उसने दासी से कहा तुम फिर बाहुक के पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओं पर ध्यान दो। अब आग मांगे तो मत देना जल मांगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ।

फिर वह मनुष्यों और देवताओं से उसमें बहुत से चरित्र देखकर वह दमयंती के पास आई और बोली बाहुक ने हर तरह से अग्रि, जल व थल पर विजय प्राप्त कर ली है। मैंने आज तक ऐसा पुरुष नहीं देखा। तब दमयंती को विश्वास हो जाता है कि वह बाहुक ही राजा नल है।

अब दमयंती ने सारी बात अपनी माता को बताकर कहा कि अब मैं स्वयं उस बाहुक की परीक्षा लेना चाहती हूं। इसलिए आप बाहुक को मेरे महल में आने की आज्ञा दीजिए। आपकी इच्छा हो तो पिताजी को बता दीजिए। रानी ने अपने पति भीमक से अनुमति ली और बाहुक को रानीवास बुलवाने की आज्ञा दी। दमयंती ने बाहुक के सामने फिर सारी बात दोहराई। तब दमयंती के आखों से आंसू टपकते देखकर नल से रहा नहीं गया। नल ने कहा मैंने तुम्हे जानबुझकर नहीं छोड़ा। नहीं जूआ खेला यह सब कलियुग की करतूत है। दमयंती ने कहा कि मैं आपके चरणों को स्पर्श करके कहती हूं कि मैंने कभी मन से पर पुरुष का चिंतन नहीं किया हो तो मेरे प्राणों का नाश हो जाए।

ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नल ने अपना संदेह छोड़ दिया और कार्कोटक नाग के दिए वस्त्र को अपने ऊपर ओढ़कर उसका स्मरण करके वे फिर असली रूप में आ गए। दोनों ने सबका आर्शीवाद लिया दमयंती के मायके से उन्हें खुब धन देकर विदा किया गया। उसके बाद नल व दमयंती अपने राज्य में पहुंचे। राजा नल ने पुष्कर से फिर जूआं खेलने को कहा तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया और नल ने जूए की हर बाजी को जीत लिया। इस तरह नल व दमयंती को फिर से अपना राज्य व धन प्राप्त हो गया।

Wednesday, August 19, 2015

Bhavani Ashtakam

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ १ ॥

भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः ।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ २ ॥

न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ३ ॥

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातः
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ४ ॥

कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः ।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ५ ॥

प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ६ ॥

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये ।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ७ ॥

अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः ।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ८ ॥

Ambe Tu Hai Jagdambe Kali

अम्बे तू  है  जगदम्बे  कलि
जय  दुर्गे  खप्पर  वाली
 तेरे  ही  गुण  गाये  भारती
ओ  मैया  हम  सब  उतारे तेरी  आरती

तेरे   भक्त  जानो  पर  माता   भीड़  पड़ी  है   भरी
दानव  दल  पर  टूट  पदों  माँ  करके  सिंह  सवारी
सौ  सौ  सिंघो  से  तू  बल  शाली
अष्ठ  भुजाओ  वाली , दुष्टों  को  पल  में  संघरती

माँ  बेटे  का  है  इस  जग  में  बड़ा  ही  निर्मल  नाता
पूत  कपूत  सुने  है  पर  न  माता  सुनी  कुमाता
 सब  पर  करुना  दर्शाने  वाली , अमृत  बरसने  वाली
दुखियों  के  दुख्दाए  निवारती

नहीं  मांगते  धन  और  दौलत  न  चांदी  न  सोना
हम  तो  मांगे  माँ  तेरे  मन  में  एक  छोटा  सा  कोना
सब  की  बिगड़ी  बनाने  वाली , लाज  बचने  वाली
सतियो  के  सैट  को  संवारती 

Aarti Kunj Bihari Ki

Aarti Kunj Bihari Hi
Gale Mein Baijanti Mala, Bajave Murali Madhur Bala।
Shravan Mein Kundal Jhalakala, Nand Ke Anand Nandlala।
Gagan Sam Ang Kanti Kali, Radhika Chamak Rahi Aali।
Latan Mein Thadhe Banamali;Bhramar Si Alak, Kasturi Tilak, Chandra Si Jhalak;
Lalit Chavi Shyama Pyari Ki॥ Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ Aarti Kunj Bihari Ki
Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ X2

Kanakmay Mor Mukut Bilse, Devata Darsan Ko Tarse।
Gagan So Suman Raasi Barse;Baje Murchang, Madhur Mridang, Gwaalin Sang;
Atual Rati Gop Kumaari Ki॥ Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ Aarti Kunj Bihari Ki
Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ X2

Jahaan Te Pragat Bhayi Ganga, Kalush Kali Haarini Shri Ganga।
Smaran Te Hot Moh Bhanga;Basi Shiv Shish, Jataa Ke Beech, Harei Agh Keech;
Charan Chhavi Shri Banvaari Ki॥ Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ Aarti Kunj Bihari Ki
Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ X2

Chamakati Ujjawal Tat Renu, Baj Rahi Vrindavan Benu।
Chahu Disi Gopi Gwaal Dhenu; Hansat Mridu Mand,
Chandani Chandra, Katat Bhav Phand; Ter Sun Deen Bhikhaaree Ki॥
Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥
Aarti Kunj Bihari Ki Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥ X2

Aarti Kunj Bihari Ki, Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥
Aarti Kunj Bihari Ki, Shri Girdhar Krishna Murari Ki॥


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आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥
गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला ।
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला ।
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली ।
लटन में ठाढ़े बनमाली;
भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक;
ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥
आरती कुंजबिहारी की...
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं ।
गगन सों सुमन रासि बरसै;
बजे मिरदंग, ग्वालिन संग;
अतुल रति गोप कुमारी की ॥
आरती कुंजबिहारी की...
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा ।
स्मरन ते होत मोह भंगा;
बसी सिव सीस, जटा के बीच, हरै अघ कीच;
चरन छवि श्रीबनवारी की ॥
आरती कुंजबिहारी की...
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…


चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू
चहूँ दिसि गोपि ग्वाल धेनू;
हंसत मृदु मंद,चांदनी चंद, कटत भव फंद;
टेर सुन दीन भिखारी की ॥
आरती कुंजबिहारी की...
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

Aarti Keeje Hanuman Lalaa Ki

Aarti keeje hanuman lalaa ki
Dusht dalan raghunath kala ki

Jake bal se girivar kape
Rog dhosh jake nikat na jhake
Anjani putra maha baldai
Santan ke prabhu sada sahai
Aarti keeje hanuman lalaa ki

De beera raghunath pathaye
Lanka jari siya sudhi laye
Lanka so kot samudar si khai
Jat pawansut dwar na layi
Aarti keeje hanuman lalaa ki

Lanka jari asur sanhare
Siyaramji ke kaaj shaware
Laxman murchit pade sakare
Aani sanjeevan pran ubare
Aarti keeje hanuman lalaa ki

Paithi patal tori jam-kare
Aahiravan ki bhuja ukhare
Baye bhuja asurdal mare
Dahine bhuja santjan tare
Aarti keeje hanuman lalaa ki

Sur nar munijan aarti utare
Jai jai jai hanuman uchare
Kanchan thar kapor lau chayi
Aarti karat anjana mai
Aarti keeje hanuman lalaa ki

Jo hanuman ji ke aarti gave
Basi baykunth param pad pave
Aarti keeje hanuman lalaa ki

Friday, July 10, 2015

Shivananda Lahari

कलाभ्यां चूडालङ्कृत-शशि कलाभ्यां निज तपः
फलाभ्यां भक्तेशु प्रकटित-फलाभ्यां भवतु मे ।
शिवाभ्यां-अस्तोक-त्रिभुवन शिवाभ्यां हृदि पुनर्-
भवाभ्याम् आनन्द स्फुर-दनुभवाभ्यां नतिरियम्           -1

गलन्ती शम्भो त्वच्-चरित-सरितः किल्बिश-रजो
दलन्ती धीकुल्या-सरणिशु पतन्ती विजयताम्
दिशन्ती संसार-भ्रमण-परिताप-उपशमनं
वसन्ती मच्-चेतो-हृदभुवि शिवानन्द-लहरी          - 2

त्रयी-वेद्यं हृद्यं त्रि-पुर-हरम् आद्यं त्रि-नयनं
जटा-भारोदारं चलद्-उरग-हारं मृग धरम्
महा-देवं देवं मयि सदय-भावं पशु-पतिं
चिद्-आलम्बं साम्बं शिवम्-अति-विडम्बं हृदि भजे           -3

सहस्रं वर्तन्ते जगति विबुधाः क्शुद्र-फलदा
न मन्ये स्वप्ने वा तद्-अनुसरणं तत्-कृत-फलम्
हरि-ब्रह्मादीनां-अपि निकट-भाजां-असुलभं
चिरं याचे शम्भो शिव तव पदाम्भोज-भजनम्           -4

स्मृतौ शास्त्रे वैद्ये शकुन-कविता-गान-फणितौ
पुराणे मन्त्रे वा स्तुति-नटन-हास्येशु-अचतुरः
कथं राज्नां प्रीतिर्-भवति मयि को(अ)हं पशु-पते
पशुं मां सर्वज्न प्रथित-कृपया पालय विभो           -5

घटो वा मृत्-पिण्डो-अपि-अणुर्-अपि च धूमो-अग्निर्-अचलः
पटो वा तन्तुर्-वा परिहरति किं घोर-शमनम्
वृथा कण्ठ-क्शोभं वहसि तरसा तर्क-वचसा
पदाम्भोजं शम्भोर्-भज परम-सौख्यं व्रज सुधीः          - 6

मनस्-ते पादाब्जे निवसतु वचः स्तोत्र-फणितौ
करौ च-अभ्यर्चायां श्रुतिर्-अपि कथाकर्णन-विधौ
तव ध्याने बुद्धिर्-नयन-युगलं मूर्ति-विभवे
पर-ग्रन्थान् कैर्-वा परम-शिव जाने परम्-अतः          - 7

यथा बुद्धिः-शुक्तौ रजतम् इति काचाश्मनि मणिर्-
जले पैश्टे क्शीरं भवति मृग-तृश्णासु सलिलम्
तथा देव-भ्रान्त्या भजति भवद्-अन्यं जड जनो
महा-देवेशं त्वां मनसि च न मत्वा पशु-पते           -8

गभीरे कासारे विशति विजने घोर-विपिने
विशाले शैले च भ्रमति कुसुमार्थं जड-मतिः
समर्प्यैकं चेतः-सरसिजम् उमा नाथ भवते
सुखेन-अवस्थातुं जन इह न जानाति किम्-अहो          - 9

नरत्वं देवत्वं नग-वन-मृगत्वं मशकता
पशुत्वं कीटत्वं भवतु विहगत्वादि-जननम्
सदा त्वत्-पादाब्ज-स्मरण-परमानन्द-लहरी
विहारासक्तं चेद्-हृदयं-इह किं तेन वपुशा           -10

वटुर्वा गेही वा यतिर्-अपि जटी वा तदितरो
नरो वा यः कश्चिद्-भवतु भव किं तेन भवति
यदीयं हृत्-पद्मं यदि भवद्-अधीनं पशु-पते
तदीयस्-त्वं शम्भो भवसि भव भारं च वहसि           -11

गुहायां गेहे वा बहिर्-अपि वने वा(अ)द्रि-शिखरे
जले वा वह्नौ वा वसतु वसतेः किं वद फलम्
सदा यस्यैवान्तःकरणम्-अपि शम्बो तव पदे
स्थितं चेद्-योगो(अ)सौ स च परम-योगी स च सुखी           -12

असारे संसारे निज-भजन-दूरे जडधिया
भरमन्तं माम्-अन्धं परम-कृपया पातुम् उचितम्
मद्-अन्यः को दीनस्-तव कृपण-रक्शाति-निपुणस्-
त्वद्-अन्यः को वा मे त्रि-जगति शरण्यः पशु-पते           -13

प्रभुस्-त्वं दीनानां खलु परम-बन्धुः पशु-पते
प्रमुख्यो(अ)हं तेशाम्-अपि किम्-उत बन्धुत्वम्-अनयोः
त्वयैव क्शन्तव्याः शिव मद्-अपराधाश्-च सकलाः
प्रयत्नात्-कर्तव्यं मद्-अवनम्-इयं बन्धु-सरणिः          - 14

उपेक्शा नो चेत् किं न हरसि भवद्-ध्यान-विमुखां
दुराशा-भूयिश्ठां विधि-लिपिम्-अशक्तो यदि भवान्
शिरस्-तद्-वदिधात्रं न नखलु सुवृत्तं पशु-पते
कथं वा निर्-यत्नं कर-नख-मुखेनैव लुलितम्           -15

विरिन्चिर्-दीर्घायुर्-भवतु भवता तत्-पर-शिरश्-
चतुश्कं संरक्श्यं स खलु भुवि दैन्यं लिखितवान्
विचारः को वा मां विशद-कृपया पाति शिव ते
कटाक्श-व्यापारः स्वयम्-अपि च दीनावन-परः           -16

फलाद्-वा पुण्यानां मयि करुणया वा त्वयि विभो
प्रसन्ने(अ)पि स्वामिन् भवद्-अमल-पादाब्ज-युगलम्
कथं पश्येयं मां स्थगयति नमः-सम्भ्रम-जुशां
निलिम्पानां श्रेणिर्-निज-कनक-माणिक्य-मकुटैः           -17

त्वम्-एको लोकानां परम-फलदो दिव्य-पदवीं
वहन्तस्-त्वन्मूलां पुनर्-अपि भजन्ते हरि-मुखाः
कियद्-वा दाक्शिण्यं तव शिव मदाशा च कियती
कदा वा मद्-रक्शां वहसि करुणा-पूरित-दृशा           -18

दुराशा-भूयिश्ठे दुरधिप-गृह-द्वार-घटके
दुरन्ते संसारे दुरित-निलये दुःख जनके
मदायासम् किं न व्यपनयसि कस्योपकृतये
वदेयं प्रीतिश्-चेत् तव शिव कृतार्थाः खलु वयम्           -19

सदा मोहाटव्यां चरति युवतीनां कुच-गिरौ
नटत्य्-आशा-शाखास्-वटति झटिति स्वैरम्-अभितः
कपालिन् भिक्शो मे हृदय-कपिम्-अत्यन्त-चपलं
दृढं भक्त्या बद्ध्वा शिव भवद्-अधीनं कुरु विभो           -20

धृति-स्तम्भाधारं दृढ-गुण निबद्धां सगमनां
विचित्रां पद्माढ्यां प्रति-दिवस-सन्मार्ग-घटिताम्
स्मरारे मच्चेतः-स्फुट-पट-कुटीं प्राप्य विशदां
जय स्वामिन् शक्त्या सह शिव गणैः-सेवित विभो           -21

प्रलोभाद्यैर्-अर्थाहरण-पर-तन्त्रो धनि-गृहे
प्रवेशोद्युक्तः-सन् भ्रमति बहुधा तस्कर-पते
इमं चेतश्-चोरं कथम्-इह सहे शन्कर विभो
तवाधीनं कृत्वा मयि निरपराधे कुरु कृपाम्           -22

करोमि त्वत्-पूजां सपदि सुखदो मे भव विभो
विधित्वं विश्णुत्वम् दिशसि खलु तस्याः फलम्-इति
पुनश्च त्वां द्रश्टुं दिवि भुवि वहन् पक्शि-मृगताम्-
अदृश्ट्वा तत्-खेदं कथम्-इह सहे शन्कर विभो           -23

कदा वा कैलासे कनक-मणि-सौधे सह-गणैर्-
वसन् शम्भोर्-अग्रे स्फुट-घटित-मूर्धान्जलि-पुटः
विभो साम्ब स्वामिन् परम-शिव पाहीति निगदन्
विधातृऋणां कल्पान् क्शणम्-इव विनेश्यामि सुखतः          - 24

स्तवैर्-ब्रह्मादीनां जय-जय-वचोभिर्-नियमानां
गणानां केलीभिर्-मदकल-महोक्शस्य ककुदि
स्थितं नील-ग्रीवं त्रि-नयनं-उमाश्लिश्ट-वपुशं
कदा त्वां पश्येयं कर-धृत-मृगं खण्ड-परशुम्          - 25

कदा वा त्वां दृश्ट्वा गिरिश तव भव्यान्घ्रि-युगलं
गृहीत्वा हस्ताभ्यां शिरसि नयने वक्शसि वहन्
समाश्लिश्याघ्राय स्फुट-जलज-गन्धान् परिमलान्-
अलभ्यां ब्रह्माद्यैर्-मुदम्-अनुभविश्यामि हृदये           -26

करस्थे हेमाद्रौ गिरिश निकटस्थे धन-पतौ
गृहस्थे स्वर्भूजा(अ)मर-सुरभि-चिन्तामणि-गणे
शिरस्थे शीतांशौ चरण-युगलस्थे(अ)खिल शुभे
कम्-अर्थं दास्ये(अ)हं भवतु भवद्-अर्थं मम मनः          - 27

सारूप्यं तव पूजने शिव महा-देवेति सङ्कीर्तने
सामीप्यं शिव भक्ति-धुर्य-जनता-साङ्गत्य-सम्भाशणे
सालोक्यं च चराचरात्मक-तनु-ध्याने भवानी-पते
सायुज्यं मम सिद्धिम्-अत्र भवति स्वामिन् कृतार्थोस्म्यहम्          - 28

त्वत्-पादाम्बुजम्-अर्चयामि परमं त्वां चिन्तयामि-अन्वहं
त्वाम्-ईशं शरणं व्रजामि वचसा त्वाम्-एव याचे विभो
वीक्शां मे दिश चाक्शुशीं स-करुणां दिव्यैश्-चिरं प्रार्थितां
शम्भो लोक-गुरो मदीय-मनसः सौख्योपदेशं कुरु           -29

वस्त्रोद्-धूत विधौ सहस्र-करता पुश्पार्चने विश्णुता
गन्धे गन्ध-वहात्मता(अ)न्न-पचने बहिर्-मुखाध्यक्शता
पात्रे कान्चन-गर्भतास्ति मयि चेद् बालेन्दु चूडा-मणे
शुश्रूशां करवाणि ते पशु-पते स्वामिन् त्रि-लोकी-गुरो           -30

नालं वा परमोपकारकम्-इदं त्वेकं पशूनां पते
पश्यन् कुक्शि-गतान् चराचर-गणान् बाह्यस्थितान् रक्शितुम्
सर्वामर्त्य-पलायनौशधम्-अति-ज्वाला-करं भी-करं
निक्शिप्तं गरलं गले न गलितं नोद्गीर्णम्-एव-त्वया           -31

ज्वालोग्रः सकलामराति-भयदः क्श्वेलः कथं वा त्वया
दृश्टः किं च करे धृतः कर-तले किं पक्व-जम्बू-फलम्
जिह्वायां निहितश्च सिद्ध-घुटिका वा कण्ठ-देशे भृतः
किं ते नील-मणिर्-विभूशणम्-अयं शम्भो महात्मन् वद           -32

नालं वा सकृद्-एव देव भवतः सेवा नतिर्-वा नुतिः
पूजा वा स्मरणं कथा-श्रवणम्-अपि-आलोकनं मादृशाम्
स्वामिन्न्-अस्थिर-देवतानुसरणायासेन किं लभ्यते
का वा मुक्तिर्-इतः कुतो भवति चेत् किं प्रार्थनीयं तदा           -33

किं ब्रूमस्-तव साहसं पशु-पते कस्यास्ति शम्भो भवद्-
धैर्यं चेदृशम्-आत्मनः-स्थितिर्-इयं चान्यैः कथं लभ्यते
भ्रश्यद्-देव-गणं त्रसन्-मुनि-गणं नश्यत्-प्रपन्चं लयं
पश्यन्-निर्भय एक एव विहरति-आनन्द-सान्द्रो भवान्          - 34

योग-क्शेम-धुरं-धरस्य सकलः-श्रेयः प्रदोद्योगिनो
दृश्टादृश्ट-मतोपदेश-कृतिनो बाह्यान्तर-व्यापिनः
सर्वज्नस्य दया-करस्य भवतः किं वेदितव्यं मया
शम्भो त्वं परमान्तरङ्ग इति मे चित्ते स्मरामि-अन्वहम्          - 35

भक्तो भक्ति-गुणावृते मुद्-अमृता-पूर्णे प्रसन्ने मनः
कुम्भे साम्ब तवान्घ्रि-पल्लव युगं संस्थाप्य संवित्-फलम्
सत्त्वं मन्त्रम्-उदीरयन्-निज शरीरागार शुद्धिं वहन्
पुण्याहं प्रकटी करोमि रुचिरं कल्याणम्-आपादयन्           -36

आम्नायाम्बुधिम्-आदरेण सुमनः-सन्घाः-समुद्यन्-मनो
मन्थानं दृढ भक्ति-रज्जु-सहितं कृत्वा मथित्वा ततः
सोमं कल्प-तरुं सु-पर्व-सुरभिं चिन्ता-मणिं धीमतां
नित्यानन्द-सुधां निरन्तर-रमा-सौभाग्यम्-आतन्वते           -37

प्राक्-पुण्याचल-मार्ग-दर्शित-सुधा-मूर्तिः प्रसन्नः-शिवः
सोमः-सद्-गुण-सेवितो मृग-धरः पूर्णास्-तमो-मोचकः
चेतः पुश्कर-लक्शितो भवति चेद्-आनन्द-पाथो-निधिः
प्रागल्भ्येन विजृम्भते सुमनसां वृत्तिस्-तदा जायते           -38

धर्मो मे चतुर्-अन्घ्रिकः सुचरितः पापं विनाशं गतं
काम-क्रोध-मदादयो विगलिताः कालाः सुखाविश्कृताः
ज्नानानन्द-महौशधिः सुफलिता कैवल्य नाथे सदा
मान्ये मानस-पुण्डरीक-नगरे राजावतंसे स्थिते           -39

धी-यन्त्रेण वचो-घटेन कविता-कुल्योपकुल्याक्रमैर्-
आनीतैश्च सदाशिवस्य चरिताम्भो-राशि-दिव्यामृतैः
हृत्-केदार-युताश्-च भक्ति-कलमाः साफल्यम्-आतन्वते
दुर्भिक्शान्-मम सेवकस्य भगवन् विश्वेश भीतिः कुतः          - 40

पापोत्पात-विमोचनाय रुचिरैश्वर्याय मृत्युं-जय
स्तोत्र-ध्यान-नति-प्रदिक्शिण-सपर्यालोकनाकर्णने
जिह्वा-चित्त-शिरोन्घ्रि-हस्त-नयन-श्रोत्रैर्-अहम् प्रार्थितो
माम्-आज्नापय तन्-निरूपय मुहुर्-मामेव मा मे(अ)वचः          - 41

गाम्भीर्यं परिखा-पदं घन-धृतिः प्राकार-उद्यद्-गुण
स्तोमश्-चाप्त-बलं घनेन्द्रिय-चयो द्वाराणि देहे स्थितः
विद्या-वस्तु-समृद्धिर्-इति-अखिल-सामग्री-समेते सदा
दुर्गाति-प्रिय-देव मामक-मनो-दुर्गे निवासं कुरु          - 42

मा गच्च त्वम्-इतस्-ततो गिरिश भो मय्येव वासं कुरु
स्वामिन्न्-आदि किरात मामक-मनः कान्तार-सीमान्तरे
वर्तन्ते बहुशो मृगा मद-जुशो मात्सर्य-मोहादयस्-
तान् हत्वा मृगया-विनोद रुचिता-लाभं च सम्प्राप्स्यसि          - 43

कर-लग्न मृगः करीन्द्र-भन्गो
घन शार्दूल-विखण्डनो(अ)स्त-जन्तुः
गिरिशो विशद्-आकृतिश्-च चेतः
कुहरे पन्च मुखोस्ति मे कुतो भीः           -44

चन्दः-शाखि-शिखान्वितैर्-द्विज-वरैः संसेविते शाश्वते
सौख्यापादिनि खेद-भेदिनि सुधा-सारैः फलैर्-दीपिते
चेतः पक्शि-शिखा-मणे त्यज वृथा-सन्चारम्-अन्यैर्-अलं
नित्यं शन्कर-पाद-पद्म-युगली-नीडे विहारं कुरु           -45

आकीर्णे नख-राजि-कान्ति-विभवैर्-उद्यत्-सुधा-वैभवैर्-
आधौतेपि च पद्म-राग-ललिते हंस-व्रजैर्-आश्रिते
नित्यं भक्ति-वधू गणैश्-च रहसि स्वेच्चा-विहारं कुरु
स्थित्वा मानस-राज-हंस गिरिजा नाथान्घ्रि-सौधान्तरे          - 46

शम्भु-ध्यान-वसन्त-सन्गिनि हृदारामे(अ)घ-जीर्णच्चदाः
स्रस्ता भक्ति लताच्चटा विलसिताः पुण्य-प्रवाल-श्रिताः
दीप्यन्ते गुण-कोरका जप-वचः पुश्पाणि सद्-वासना
ज्नानानन्द-सुधा-मरन्द-लहरी संवित्-फलाभ्युन्नतिः           -47

नित्यानन्द-रसालयं सुर-मुनि-स्वान्ताम्बुजाताश्रयं
स्वच्चं सद्-द्विज-सेवितं कलुश-हृत्-सद्-वासनाविश्कृतम्
शम्भु-ध्यान-सरोवरं व्रज मनो-हंसावतंस स्थिरं
किं क्शुद्राश्रय-पल्वल-भ्रमण-सञ्जात-श्रमं प्राप्स्यसि           -48

आनन्दामृत-पूरिता हर-पदाम्भोजालवालोद्यता
स्थैर्योपघ्नम्-उपेत्य भक्ति लतिका शाखोपशाखान्विता
उच्चैर्-मानस-कायमान-पटलीम्-आक्रम्य निश्-कल्मशा
नित्याभीश्ट-फल-प्रदा भवतु मे सत्-कर्म-संवर्धिता          - 49

सन्ध्यारम्भ-विजृम्भितं श्रुति-शिर-स्थानान्तर्-आधिश्ठितं
स-प्रेम भ्रमराभिरामम्-असकृत् सद्-वासना-शोभितम्
भोगीन्द्राभरणं समस्त-सुमनः-पूज्यं गुणाविश्कृतं
सेवे श्री-गिरि-मल्लिकार्जुन-महा-लिन्गं शिवालिन्गितम्          - 50

भृन्गीच्चा-नटनोत्कटः करि-मद-ग्राही स्फुरन्-माधव-
आह्लादो नाद-युतो महासित-वपुः पन्चेशुणा चादृतः
सत्-पक्शः सुमनो-वनेशु स पुनः साक्शान्-मदीये मनो
राजीवे भ्रमराधिपो विहरतां श्री शैल-वासी विभुः           -51

कारुण्यामृत-वर्शिणं घन-विपद्-ग्रीश्मच्चिदा-कर्मठं
विद्या-सस्य-फलोदयाय सुमनः-संसेव्यम्-इच्चाकृतिम्
नृत्यद्-भक्त-मयूरम्-अद्रि-निलयं चन्चज्-जटा-मण्डलं
शम्भो वान्चति नील-कन्धर-सदा त्वां मे मनश्-चातकः           -52

आकाशेन शिखी समस्त फणिनां नेत्रा कलापी नता-
(अ)नुग्राहि-प्रणवोपदेश-निनदैः केकीति यो गीयते
श्यामां शैल-समुद्भवां घन-रुचिं दृश्ट्वा नटन्तं मुदा
वेदान्तोपवने विहार-रसिकं तं नील-कण्ठं भजे           -53

सन्ध्या घर्म-दिनात्ययो हरि-कराघात-प्रभूतानक-
ध्वानो वारिद गर्जितं दिविशदां दृश्टिच्चटा चन्चला
भक्तानां परितोश बाश्प विततिर्-वृश्टिर्-मयूरी शिवा
यस्मिन्न्-उज्ज्वल-ताण्डवं विजयते तं नील-कण्ठं भजे           -54

आद्यायामित-तेजसे-श्रुति-पदैर्-वेद्याय साध्याय ते
विद्यानन्द-मयात्मने त्रि-जगतः-संरक्शणोद्योगिने
ध्येयायाखिल-योगिभिः-सुर-गणैर्-गेयाय मायाविने
सम्यक् ताण्डव-सम्भ्रमाय जटिने सेयं नतिः-शम्भवे          - 55

नित्याय त्रि-गुणात्मने पुर-जिते कात्यायनी-श्रेयसे
सत्यायादि कुटुम्बिने मुनि-मनः प्रत्यक्श-चिन्-मूर्तये
माया-सृश्ट-जगत्-त्रयाय सकल-आम्नायान्त-सन्चारिणे
सायं ताण्डव-सम्भ्रमाय जटिने सेयं नतिः-शम्भवे          - 56

नित्यं स्वोदर-पोशणाय सकलान्-उद्दिश्य वित्ताशया
व्यर्थं पर्यटनं करोमि भवतः-सेवां न जाने विभो
मज्-जन्मान्तर-पुण्य-पाक-बलतस्-त्वं शर्व सर्वान्तरस्-
तिश्ठस्येव हि तेन वा पशु-पते ते रक्शणीयो(अ)स्म्यहम्           -57

एको वारिज-बान्धवः क्शिति-नभो व्याप्तं तमो-मण्डलं
भित्वा लोचन-गोचरोपि भवति त्वं कोटि-सूर्य-प्रभः
वेद्यः किं न भवस्यहो घन-तरं कीदृन्ग्भवेन्-मत्तमस्-
तत्-सर्वं व्यपनीय मे पशु-पते साक्शात् प्रसन्नो भव           -58

हंसः पद्म-वनं समिच्चति यथा नीलाम्बुदं चातकः
कोकः कोक-नद-प्रियं प्रति-दिनं चन्द्रं चकोरस्-तथा
चेतो वान्चति मामकं पशु-पते चिन्-मार्ग मृग्यं विभो
गौरी नाथ भवत्-पदाब्ज-युगलं कैवल्य-सौख्य-प्रदम्          - 59

रोधस्-तोयहृतः श्रमेण-पथिकश्-चायां तरोर्-वृश्टितः
भीतः स्वस्थ गृहं गृहस्थम्-अतिथिर्-दीनः प्रभं धार्मिकम्
दीपं सन्तमसाकुलश्-च शिखिनं शीतावृतस्-त्वं तथा
चेतः-सर्व-भयापहं-व्रज सुखं शम्भोः पदाम्भोरुहम्           -60

अन्कोलं निज बीज सन्ततिर्-अयस्कान्तोपलं सूचिका
साध्वी नैज विभुं लता क्शिति-रुहं सिन्धुह्-सरिद्-वल्लभम्
प्राप्नोतीह यथा तथा पशु-पतेः पादारविन्द-द्वयं
चेतोवृत्तिर्-उपेत्य तिश्ठति सदा सा भक्तिर्-इति-उच्यते           -61

आनन्दाश्रुभिर्-आतनोति पुलकं नैर्मल्यतश्-चादनं
वाचा शन्ख मुखे स्थितैश्-च जठरा-पूर्तिं चरित्रामृतैः
रुद्राक्शैर्-भसितेन देव वपुशो रक्शां भवद्-भावना-
पर्यन्के विनिवेश्य भक्ति जननी भक्तार्भकं रक्शति           -62

मार्गा-वर्तित पादुका पशु-पतेर्-अङ्गस्य कूर्चायते
गण्डूशाम्बु-निशेचनं पुर-रिपोर्-दिव्याभिशेकायते
किन्चिद्-भक्शित-मांस-शेश-कबलं नव्योपहारायते
भक्तिः किं न करोति-अहो वन-चरो भक्तावतम्सायते           -63

वक्शस्ताडनम्-अन्तकस्य कठिनापस्मार सम्मर्दनं
भू-भृत्-पर्यटनं नमत्-सुर-शिरः-कोटीर सन्घर्शणम्
कर्मेदं मृदुलस्य तावक-पद-द्वन्द्वस्य गौरी-पते
मच्चेतो-मणि-पादुका-विहरणं शम्भो सदान्गी-कुरु           -64

वक्शस्-ताडन शन्कया विचलितो वैवस्वतो निर्जराः
कोटीरोज्ज्वल-रत्न-दीप-कलिका-नीराजनं कुर्वते
दृश्ट्वा मुक्ति-वधूस्-तनोति निभृताश्लेशं भवानी-पते
यच्-चेतस्-तव पाद-पद्म-भजनं तस्येह किं दुर्-लभम्           -65

क्रीडार्थं सृजसि प्रपन्चम्-अखिलं क्रीडा-मृगास्-ते जनाः
यत्-कर्माचरितं मया च भवतः प्रीत्यै भवत्येव तत्
शम्भो स्वस्य कुतूहलस्य करणं मच्चेश्टितं निश्चितं
तस्मान्-मामक रक्शणं पशु-पते कर्तव्यम्-एव त्वया           -66

बहु-विध-परितोश-बाश्प-पूर-
स्फुट-पुलकान्कित-चारु-भोग-भूमिम्
चिर-पद-फल-कान्क्शि-सेव्यमानां
परम सदाशिव-भावनां प्रपद्ये          - 67

अमित-मुदमृतं मुहुर्-दुहन्तीं
विमल-भवत्-पद-गोश्ठम्-आवसन्तीम्
सदय पशु-पते सुपुण्य-पाकां
मम परिपालय भक्ति धेनुम्-एकाम्           -68

जडता पशुता कलन्किता
कुटिल-चरत्वं च नास्ति मयि देव
अस्ति यदि राज-मौले
भवद्-आभरणस्य नास्मि किं पात्रम्           -69

अरहसि रहसि स्वतन्त्र-बुद्ध्या
वरि-वसितुं सुलभः प्रसन्न-मूर्तिः
अगणित फल-दायकः प्रभुर्-मे
जगद्-अधिको हृदि राज-शेखरोस्ति           -70

आरूढ-भक्ति-गुण-कुन्चित-भाव-चाप-
युक्तैः-शिव-स्मरण-बाण-गणैर्-अमोघैः
निर्जित्य किल्बिश-रिपून् विजयी सुधीन्द्रः-
सानन्दम्-आवहति सुस्थिर-राज-लक्श्मीम्           -71

ध्यानान्जनेन समवेक्श्य तमः-प्रदेशं
भित्वा महा-बलिभिर्-ईश्वर नाम-मन्त्रैः
दिव्याश्रितं भुजग-भूशणम्-उद्वहन्ति
ये पाद-पद्मम्-इह ते शिव ते कृतार्थाः          - 72

भू-दारताम्-उदवहद्-यद्-अपेक्शया श्री-
भू-दार एव किमतः सुमते लभस्व
केदारम्-आकलित मुक्ति महौशधीनां
पादारविन्द भजनं परमेश्वरस्य           -73

आशा-पाश-क्लेश-दुर्-वासनादि-
भेदोद्युक्तैर्-दिव्य-गन्धैर्-अमन्दैः
आशा-शाटीकस्य पादारविन्दं
चेतः-पेटीं वासितां मे तनोतु           -74

कल्याणिनं सरस-चित्र-गतिं सवेगं
सर्वेन्गितज्नम्-अनघं ध्रुव-लक्शणाढ्यम्
चेतस्-तुरन्गम्-अधिरुह्य चर स्मरारे
नेतः-समस्त जगतां वृशभाधिरूढ           -75

भक्तिर्-महेश-पद-पुश्करम्-आवसन्ती
कादम्बिनीव कुरुते परितोश-वर्शम्
सम्पूरितो भवति यस्य मनस्-तटाकस्-
तज्-जन्म-सस्यम्-अखिलं सफलं च नान्यत्          - 76

बुद्धिः-स्थिरा भवितुम्-ईश्वर-पाद-पद्म
सक्ता वधूर्-विरहिणीव सदा स्मरन्ती
सद्-भावना-स्मरण-दर्शन-कीर्तनादि
सम्मोहितेव शिव-मन्त्र-जपेन विन्ते           -77

सद्-उपचार-विधिशु-अनु-बोधितां
सविनयां सुहृदं सदुपाश्रिताम्
मम समुद्धर बुद्धिम्-इमां प्रभो
वर-गुणेन नवोढ-वधूम्-इव           -78

नित्यं योगि-मनह्-सरोज-दल-सन्चार-क्शमस्-त्वत्-क्रमः-
शम्भो तेन कथं कठोर-यम-राड्-वक्शः-कवाट-क्शतिः
अत्यन्तं मृदुलं त्वद्-अन्घ्रि-युगलं हा मे मनश्-चिन्तयति-
एतल्-लोचन-गोचरं कुरु विभो हस्तेन संवाहये           -79

एश्यत्येश जनिं मनो(अ)स्य कठिनं तस्मिन्-नटानीति मद्-
रक्शायै गिरि सीम्नि कोमल-पद-न्यासः पुराभ्यासितः
नो-चेद्-दिव्य-गृहान्तरेशु सुमनस्-तल्पेशु वेद्यादिशु
प्रायः-सत्सु शिला-तलेशु नटनं शम्भो किमर्थं तव           -80

कन्चित्-कालम्-उमा-महेश भवतः पादारविन्दार्चनैः
कन्चिद्-ध्यान-समाधिभिश्-च नतिभिः कन्चित् कथाकर्णनैः
कन्चित् कन्चिद्-अवेक्शणैश्-च नुतिभिः कन्चिद्-दशाम्-ईदृशीं
यः प्राप्नोति मुदा त्वद्-अर्पित मना जीवन् स मुक्तः खलु           -81

बाणत्वं वृशभत्वम्-अर्ध-वपुशा भार्यात्वम्-आर्या-पते
घोणित्वं सखिता मृदन्ग वहता चेत्यादि रूपं दधौ
त्वत्-पादे नयनार्पणं च कृतवान् त्वद्-देह भागो हरिः
पूज्यात्-पूज्य-तरः-स एव हि न चेत् को वा तदन्यो(अ)धिकः           -82

जनन-मृति-युतानां सेवया देवतानां
न भवति सुख-लेशः संशयो नास्ति तत्र
अजनिम्-अमृत रूपं साम्बम्-ईशं भजन्ते
य इह परम सौख्यं ते हि धन्या लभन्ते           -83

शिव तव परिचर्या सन्निधानाय गौर्या
भव मम गुण-धुर्यां बुद्धि-कन्यां प्रदास्ये
सकल-भुवन-बन्धो सच्चिद्-आनन्द-सिन्धो
सदय हृदय-गेहे सर्वदा संवस त्वम्           -84

जलधि मथन दक्शो नैव पाताल भेदी
न च वन मृगयायां नैव लुब्धः प्रवीणः
अशन-कुसुम-भूशा-वस्त्र-मुख्यां सपर्यां
कथय कथम्-अहं ते कल्पयानीन्दु-मौले           -85

पूजा-द्रव्य-समृद्धयो विरचिताः पूजां कथं कुर्महे
पक्शित्वं न च वा कीटित्वम्-अपि न प्राप्तं मया दुर्-लभम्
जाने मस्तकम्-अन्घ्रि-पल्लवम्-उमा-जाने न ते(अ)हं विभो
न ज्नातं हि पितामहेन हरिणा तत्त्वेन तद्-रूपिणा           -86

अशनं गरलं फणी कलापो
वसनं चर्म च वाहनं महोक्शः
मम दास्यसि किं किम्-अस्ति शम्भो
तव पादाम्बुज-भक्तिम्-एव देहि           -87

यदा कृताम्भो-निधि-सेतु-बन्धनः
करस्थ-लाधः-कृत-पर्वताधिपः
भवानि ते लन्घित-पद्म-सम्भवस्-
तदा शिवार्चा-स्तव भावन-क्शमः           -88

नतिभिर्-नुतिभिस्-त्वम्-ईश पूजा
विधिभिर्-ध्यान-समाधिभिर्-न तुश्टः
धनुशा मुसलेन चाश्मभिर्-वा
वद ते प्रीति-करं तथा करोमि           -89

वचसा चरितं वदामि शम्भोर्-
अहम्-उद्योग विधासु ते(अ)प्रसक्तः
मनसाकृतिम्-ईश्वरस्य सेवे
शिरसा चैव सदाशिवं नमामि           -90

आद्या(अ)विद्या हृद्-गता निर्गतासीत्-
विद्या हृद्या हृद्-गता त्वत्-प्रसादात्
सेवे नित्यं श्री-करं त्वत्-पदाब्जं
भावे मुक्तेर्-भाजनं राज-मौले          -91

दूरीकृतानि दुरितानि दुरक्शराणि
दौर्-भाग्य-दुःख-दुरहङ्कृति-दुर्-वचांसि
सारं त्वदीय चरितं नितरां पिबन्तं
गौरीश माम्-इह समुद्धर सत्-कटाक्शैः          -92

सोम कला-धर-मौलौ
कोमल घन-कन्धरे महा-महसि
स्वामिनि गिरिजा नाथे
मामक हृदयं निरन्तरं रमताम्          -93

सा रसना ते नयने
तावेव करौ स एव कृत-कृत्यः
या ये यौ यो भर्गं
वदतीक्शेते सदार्चतः स्मरति           -94

अति मृदुलौ मम चरणौ-
अति कठिनं ते मनो भवानीश
इति विचिकित्सां सन्त्यज
शिव कथम्-आसीद्-गिरौ तथा प्रवेशः           -95

धैयान्कुशेन निभृतं
रभसाद्-आकृश्य भक्ति-शृन्खलया
पुर-हर चरणालाने
हृदय-मदेभं बधान चिद्-यन्त्रैः           -96

प्रचरत्यभितः प्रगल्भ-वृत्त्या
मदवान्-एश मनः-करी गरीयान्
परिगृह्य नयेन भक्ति-रज्ज्वा
परम स्थाणु-पदं दृढं नयामुम्           -97

सर्वालन्कार-युक्तां सरल-पद-युतां साधु-वृत्तां सुवर्णां
सद्भिः-सम्स्तूय-मानां सरस गुण-युतां लक्शितां लक्शणाढ्याम्
उद्यद्-भूशा-विशेशाम्-उपगत-विनयां द्योत-मानार्थ-रेखां
कल्याणीं देव गौरी-प्रिय मम कविता-कन्यकां त्वं गृहाण          -98

इदं ते युक्तं वा परम-शिव कारुण्य जलधे
गतौ तिर्यग्-रूपं तव पद-शिरो-दर्शन-धिया
हरि-ब्रह्माणौ तौ दिवि भुवि चरन्तौ श्रम-युतौ
कथं शम्भो स्वामिन् कथय मम वेद्योसि पुरतः          - 99

स्तोत्रेणालम्-अहं प्रवच्मि न मृशा देवा विरिन्चादयः
स्तुत्यानां गणना-प्रसन्ग-समये त्वाम्-अग्रगण्यं विदुः
माहात्म्याग्र-विचारण-प्रकरणे धाना-तुशस्तोमवद्-
धूतास्-त्वां विदुर्-उत्तमोत्तम फलं शम्भो भवत्-सेवकाः          - 100

BILVAASHTAKAM

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधं
त्रिजन्म पापसंहारम् एकबिल्वं शिवार्पणं

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्चिद्रैः कोमलैः शुभैः
तवपूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणं

कोटि कन्या महादानं तिलपर्वत कोटयः
काञ्चनं क्षीलदानेन एकबिल्वं शिवार्पणं

काशीक्षेत्र निवासं च कालभैरव दर्शनं
प्रयागे माधवं दृष्ट्वा एकबिल्वं शिवार्पणं

इन्दुवारे व्रतं स्थित्वा निराहारो महेश्वराः
नक्तं हौष्यामि देवेश एकबिल्वं शिवार्पणं

रामलिङ्ग प्रतिष्ठा च वैवाहिक कृतं तधा
तटाकानिच सन्धानम् एकबिल्वं शिवार्पणं

अखण्ड बिल्वपत्रं च आयुतं शिवपूजनं
कृतं नाम सहस्रेण एकबिल्वं शिवार्पणं

उमया सहदेवेश नन्दि वाहनमेव च
भस्मलेपन सर्वाङ्गम् एकबिल्वं शिवार्पणं

सालग्रामेषु विप्राणां तटाकं दशकूपयोः
यज्नकोटि सहस्रस्च एकबिल्वं शिवार्पणं

दन्ति कोटि सहस्रेषु अश्वमेध शतक्रतौ
कोटिकन्या महादानम् एकबिल्वं शिवार्पणं

बिल्वाणां दर्शनं पुण्यं स्पर्शनं पापनाशनं
अघोर पापसंहारम् एकबिल्वं शिवार्पणं

सहस्रवेद पाटेषु ब्रह्मस्तापन मुच्यते
अनेकव्रत कोटीनाम् एकबिल्वं शिवार्पणं

अन्नदान सहस्रेषु सहस्रोप नयनं तधा
अनेक जन्मपापानि एकबिल्वं शिवार्पणं

बिल्वस्तोत्रमिदं पुण्यं यः पठेश्शिव सन्निधौ
शिवलोकमवाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणं

KASI VISHWANATHASHTAKAM

गङ्गा तरङ्ग रमणीय जटा कलापं
गौरी निरन्तर विभूषित वाम भागं
नारायण प्रियमनङ्ग मदापहारं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 1 ॥

वाचामगोचरमनेक गुण स्वरूपं
वागीश विष्णु सुर सेवित पाद पद्मं
वामेण विग्रह वरेन कलत्रवन्तं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 2 ॥

भूतादिपं भुजग भूषण भूषिताङ्गं
व्याघ्राञ्जिनां बरधरं, जटिलं, त्रिनेत्रं
पाशाङ्कुशाभय वरप्रद शूलपाणिं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 3 ॥

सीतांशु शोभित किरीट विराजमानं
बालेक्षणातल विशोषित पञ्चबाणं
नागाधिपा रचित बासुर कर्ण पूरं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 4 ॥

पञ्चाननं दुरित मत्त मतङ्गजानां
नागान्तकं धनुज पुङ्गव पन्नागानां
दावानलं मरण शोक जराटवीनां
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 5 ॥

तेजोमयं सगुण निर्गुणमद्वितीयं
आनन्द कन्दमपराजित मप्रमेयं
नागात्मकं सकल निष्कलमात्म रूपं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 6 ॥

आशां विहाय परिहृत्य परश्य निन्दां
पापे रथिं च सुनिवार्य मनस्समाधौ
आधाय हृत्-कमल मध्य गतं परेशं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 7 ॥

रागाधि दोष रहितं स्वजनानुरागं
वैराग्य शान्ति निलयं गिरिजा सहायं
माधुर्य धैर्य सुभगं गरलाभिरामं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 8 ॥

वाराणसी पुर पते स्थवनं शिवस्य
व्याख्यातम् अष्टकमिदं पठते मनुष्य
विद्यां श्रियं विपुल सौख्यमनन्त कीर्तिं
सम्प्राप्य देव निलये लभते च मोक्षम् ॥

विश्वनाधाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेः शिव सन्निधौ
शिवलोकमवाप्नोति शिवेनसह मोदते ॥